2008 को दस मई की सुबह। राजधानी एक्सप्रैस आबू रोड पर रुकी। हम अपने सामान समेत गाड़ी से उतरने के लिए तैयार खड़े थे। डिब्बे का दरवाज़ा खुलते ही आबू पर्वत की हवाएँ दस्तक देने लगीं। यह तो हमें बाद में पता चला कि गई रात पानी गिरा था। थोड़ी देर बाद हमारी टैक्सी तेज़ रफ़्तार के साथ आबू की ओर जा रही थी। आबू रोड से आबू पर्वत तक कुल 28 किलोमीटर लंबा रास्ता हमें तय करना था। काफ़ी दूर तक सड़क सीधी थी। कुछ देर के बाद ही हमारी टैक्सी घुमावदार सड़कों पर दाखिल हो गई। सड़क साफ़-सुथरी और खाली थी। हवाओं से बातें करने का इससे अच्छा अवसर और कहाँ हो सकता था। टैक्सी के लिए भी और हमारे लिए भी। पर्वत की पीठ कभी हमारे दाएँ तो कभी हमारे बाएँ हो रही थी। पर्वतीय इलाके से जितनी हरियाली की अपेक्षा होती है, उतनी हरियाली नहीं दिख रही थी। शिमला, मसूरी, शिलांग, ईटानगर, ऊटी या कोडई-कनाल जाते हुए हरियाली की जो सघनता मिलती है, वैसी सघनता यहाँ नहीं थी। कारण शायद राजस्थान का पर्वत था यह और मई का महीना। हाँ, राजस्थान के मैदानी इलाकों से तुलना की जाए तो आबू पर्वत का पलड़ा भारी बैठता था। लेकिन एक पहाड़ी इलाके की तुलना तो दूसरे पहाड़ी इलाके से ही होनी चाहिए।
होटल हिलटाप। अनुज राजेन्द्र ने अरावली पर्वत श्रृंखला के आबू पर्वत पर बसे इसी होटल में एक कमरा बुक करवा दिया था। मैं और शशि – दोनों के चेहरों पर थकान की परतें दिखने लगी थीं। हमने जल्दी ही होटल के कमरे पर कब्ज़ा किया और गैलरी में खड़े होकर सामने खड़ी पहाड़ी के कदमों में झूमते पेड़ों को देखने लगे। ईटानगर के सर्किट हाउस की याद ताज़ा हो आई। ईटानगर में सर्किट हाउस के आसपास खामोशी पसरी हुई थी, जिसे हवाओं की साँय-साँय या बादलों की गरज तोड़ देती थी। यहाँ होटल के ठीक सामने मुख्य सड़क थी। यही सड़क सैलानियों को नक्की झील और दिलवाड़ा मन्दिर आदि दर्शनीय स्थलों की ओर ले जाती थी। खजूर के झूमते पेड़ों और हवाओं में घुली तरलता ने हमारे चेहरों से थकान की परतों को धो दिया। नतीजतन कुछ ही देर के बाद हम सज-धज कर आबू पर्वत के अनेक सर-सब्ज़ छोरों को छूने को तैयार थे।
आबू पर्वत, जिसे बाद में अंग्रेज़ों ने माउंट आबू नाम दे दिया। आज भी यह जगह इसी नाम से विख्यात है। आबू पर्वत अस्तित्त्व में कब आया? इस प्रश्न का कोई निश्चित जवाब न तो इतिहासकारों के पास है नाही पुरातात्त्विकों ने कोई तारीख़ तय की है। पद्म-पुराण में आई एक कथा के सहारे इसके अस्तित्त्व में आने के बारे में बात की जा सकती है। इस कथा के अनुसार सदियों पहले एक बार इस पर्वत-क्षेत्र में मुनि वसिष्ठ की कामधेनु नंदिनी एक गहरी खाई में फंस गई। उस खाई से नंदिनी को निकालने के जब सारे प्रयास विफल हो गए तो मुनि वसिष्ठ ने शिव से सहायता की गुहार लगाई। शिव की कृपा से पवित्र नदी सरस्वती ने उस खाई को पानी से भर दिया और नंदिनी तैर कर बाहर आ गई। ऐसी घटना की पुनरावृत्ति न हो, इसलिए वसिष्ठ मुनि ने हिमालय से प्रार्थना की कि वह इस महाखड्ड को सदा के लिए भर दे। तब हिमालय के छोटे पुत्र ने अर्बुद नाम के साँप की सहायता से उस खाई को सदा के लिए पाट दिया। इसीलिए इस स्थान का नाम अर्बुद पर्वत पड़ गया जो कालांतर में आबू पर्वत और फ़िर माउंट आबू हो गया। इस पौराणिक कथा की समाज-शास्त्रीय व्याख्या की जाए तो इस नाम से अभिहित वहाँ कोई आदि जाति हो सकती है। वैसे वसिष्ठ मुनि की कामधेनु का प्रसंग हमें कालिदास के महाकाव्य रघुवंश में भी मिलता है।
प्रदूषण रहित मौसम ने हमें तरोताज़ा कर दिया था और हम आबू दर्शन के लिए निकल पड़े। सबसे पहले चले अर्बुदा मंदिर की ओर। रास्ते में नक्की झील गुनगुनाती हुई मिली। चढ़ती धूप में भी कई लोग नौका विहार का आनंद दे रहे थे। थोड़ी ही देर बाद हम अर्बुदा देवी मंदिर के सामने खड़े थे। यही मंदिर कात्यायनी शक्ति पीठ के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ 4220 फुट की ऊँचाई पर एक गुफ़ा में देवी का स्थान है। ऊपर जाने के लिए 360 सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। हम थोड़ी देर आतंकित रहते हैं कि इतनी सीढ़ियाँ हम चढ़ भी पाएँगे या नहीं। ऊपर से लौटते हुए भक्तजन हमारा साहस बढ़ा रहे थे। देवी दर्शन की इच्छा न तो मुझमें थी और नाही शशि में, लेकिन मन में एक जिज्ञासा ज़रूर थी यह जानने की कि ऊपर आखिर क्या है और कैसा है? यह भी कि ऊपर से देखने पर आबू प्रदेश कैसा दिखता होगा और तीसरी बात यह कि इसी बहाने हमारा शरीर खुलेगा। यही सब सोचकर सीढ़ियाँ चढ़ना शुरू किया। बीच राह में ही शशि की साँस उखड़ने लगी। एक विश्राम-स्थल नज़र आया। हम दोनों वहीं बैठ गए। ऐसा एक बार शशि के साथ पहले भी हो चुका था। तब हम कोचि घूमने गए थे और एक जल-प्रपात का सौन्दर्य देखने के लिए पहाड़ से बहुत नीचे उतर गए थे। जब लौटने लगे तो शशि की साँस उखड़ गई थी। आज फ़िर वैसा ही कुछ हो रहा था। एक चिन्ता घेरने लगी। थोड़ी देर बाद वह व्यवस्थित हुई तो मैंने कहा –“तुम यहीं बैठो, मैं ऊपर होकर आता हूँ”। ऊपर पहुँचा। सुहानी हवा के तेज़ झोंकों से रोम-रोम पुलकित हो उठा। खूब सारी ताज़ा हवा अपने फेफड़ों में भर कर मैं जल्दी ही गुफ़ा में प्रवेश कर गया। यह प्राकृतिक रूप से बनी एक पहाड़ी गुफ़ा थी। गुफ़ा के अंदर कात्यायनी की प्रतिमा और उसके ठीक सामने अर्बुद (साँप) की मूर्ति। वहाँ पाँच-सात भक्त-जन श्रद्धावनत थे। मैं वहाँ थोड़ी देर खड़ा रहा। पुजारी की निगाहें मुझ पर लगी थीं। मैंने माथा नहीं टेका तो उस पुजारी की निगाहों में शंका के बादल तैरने लगे। मैं वहाँ खड़ा परिवेश की गंध को अपने अंदर समो रहा था। गुफ़ा को सादगी पूर्ण ढंग से ही रखा गया था। एक थाली में कच्चे नारियल के टुकड़े सजे हुए थे, जो प्रसाद स्वरूप बाँटे जा रहे थे।
इससे पहले कि पुजारी की शंका के बादल मुझ पर बरसने लगते, मैंने ही उससे पूछ लिया –“इस मंदिर के बारे में बताएँगे कुछ?”
भक्त-जन पूछते नहीं, सिर्फ़ माथा टेकते हैं, चढ़ावा चढ़ाते हैं, आरती करते हैं, प्रसाद लेते हैं और चले जाते हैं। फ़िर यह प्रश्न करने वाला कौन है? मैंने स्वयं ही उसके मन के प्रश्न को जानकर उत्तर दिया –“ मैं फ़लाँ-फ़लाँ हूँ, दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाता हूँ, कुछ काम कर रहा हूँ……न बताना चाहें तो कोई किताब हो तो वह बता दें……पढ़ लूँगा”
पुजारी की आँखों में तैरते शंका के बाद छितराने लगे थे। वह बताने लगा- “अर्बुदा देवी दुर्गा का छठा रूप है। वह यहाँ साढ़े पाँच हज़ार साल पहले प्रकट हुईं और फ़िर यहीँ स्थित हो गईं। उन्हीं के नाम पर इस प्रदेश का नाम अर्बुद पर्वत पड़ा जो कालान्तर में आबू पर्वत हो गया। इससे अधिक जानना चाहें तो स्कंदपुराण का आठवाँ अध्याय पढ़ें” इतना कहकर पुजारी ने कच्चे नारियल का एक टुकड़ा प्रसाद स्वरूप थमा दिया। हालाँकि मुझे देवी में कोई श्रद्धा नहीं थी और नाहीं स्कंदपुराण या किसी और पुराण में, लेकिन प्रसाद मना करके मैं किसी की अवमानना नहीं करना चाहता था। सो चुपचाप गुफ़ा से बाहर निकल आया। कच्चे नारियल के उस टुकड़े को अच्छी तरह से धोया और बाद में मैंने और शशि ने बाँट कर खा लिया।
अर्बुदा देवी को अधर देवी भी कहा जाता है। शिव ने सती के अधजले शरीर को कंधे पर उठाकर जब भ्रमण किया तो सती के शरीर का जो-जो अंग जहाँ-जहाँ गिरा, वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ की स्थापना हुई। इस तरह भारत में कुल 52 शक्तिपीठों की स्थापना हुई। सती के अधर यहाँ प्रतिष्ठित हुए, इसलिए इसे अधर देवी भी कहा गया। ठीक वैसे ही जैसे गुवाहाटी में सती की योनि प्रतिष्ठित होने से वहाँ कामाक्षी या कामाख्या मंदिर की स्थापना हुई। ऐसे ही एक शक्तिपीठ की स्थापना आबू रोड के साथ ही सटे गुजरात राज्य के अंबानगर में अंबादेवी के नाम से हुई। ऐसी मान्यता है कि यहाँ सती का हृदय स्थापित है। एक लोक-श्रुति के अनुसार दुर्गा का यह रूप जब स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरा तो वह आकाश और पाताल के बीच यहीं आबू पर्वत पर स्थित हो गया। समतल भूमि तक न पहुँचा। इसलिए भी इसे अधर देवी कहा जाता है।
यह सभी पौराणिक एवं लोक-प्रसंग अत्यंत दिलचस्प होते हैं, जो एक तथ्य की ओर निर्विवाद रूप से संकेत करते हैं कि व्यक्ति का मानस जितना आदिम होगा, वह इन चमत्कारों में उतना ही विश्वास करता रहेगा। बहुत वैज्ञानिक विकास के बावजूद अभी भी मनुष्य का सामूहिक मन सामूहिक आदिम मन से बहुत आगे नहीं बढ़ सका। चमत्कार एवं रहस्य उन्हीं लोगों को नई खोजों की ओर प्रेरित करते हैं जो आदिम मन से विकसित मन की ओर बढ़ना चाहते हैं। परम विकसित मन की सत्ता कब बनेगी, यह कहना तो मुश्किल है। नाही इसकी कोई भविष्यवाणी की जा सकती है। हाँ, जब-तब यह संकेत मिलते रहते हैं कि मन के विकास की प्रक्रिया निरंतर उसी ओर है।
कात्यायनी शक्तिपीठ से हम विश्व-प्रसिद्ध दिलवाड़ा मंदिर की ओर बढ़ते हैं। ग्यारहवीं शताब्दी तक माउंट आबू वैष्णवों एवं शैवों तीर्थ यात्रियों का गढ़ रहा है, लेकिन आज यह भव्य दिलवाड़ा मंदिर के कारण अधिक जाना जाता है। आबू की स्वास्थ्य-वर्द्धक हवाओं में ही दिलवाड़ा का स्थापत्य एवं मूर्ति-कला घुल-मिल गई है। आम और स्वर्ण-चंपा के पेड़ों के झुरमुट में आंशिक रूप से छिपा दिलवाड़ा जैन मंदिर एक विशाल प्रांगण में कई मंदिरों में बँटा हुआ है। मंदिर का सादगी पूर्ण प्रवेश-द्वार इस मंदिर के अंदर फैली भव्यता की ओर ज़रा भी संकेत नहीं करता। यहाँ कुल पाँच श्वेतांबर जैन मंदिर हैं, जिनमें से विमलवसहि एवं लूणवसहि मंदिर अपेक्षाकृत अधिक कलात्मक वैशिष्ट्य लिए हुए है, जबकि महावीर स्वामी के पीतलहर मंदिर एवं पार्श्वनाथ के मंदिर में उतनी भव्यता दृष्टिगोचर नहीं होती। दिलचस्प बात यह है कि इसी परिसर में कुन्थुनाथ स्वामी का दिगम्बर जैन मंदिर भी है।
आतंकवादियों ने उन्हीं दिनों जयपुर में बम-विस्फोट किए थे। लगभग सत्तर लोगों की जानें गईं थीं। इसलिए आबू में भी सुरक्षा-व्यवस्था कड़ी थी। उन सभी अवरोधों से निपटते हुए हम मंदिर के परिसर में प्रवेश करते हैं। मंदिर की प्रबंध-समिति के साथ मतभेदों के कारण गाइड हड़ताल पर थे। हम किताबों और लोगों के सहारे ही आगे बढ़ते हैं।
इन मंदिरों में सबसे प्राचीन विमलवसहि मंदिर है। दिलवाड़ा परिसर में प्रवेश करते ही बाईं ओर एक श्वेतांबरी जैन सज्जन हाथ जोड़े अभ्यर्थना कर रहे थे। हम उनके पास जाकर खड़े हो गए। उनकी अभ्यर्थना खत्म होने के बाद हमने उनसे उस मंदिर के इतिहास एवं स्थापत्य के बारे में कुछ जानना चाहा, लेकिन वह कुछ भी न बता सके। उनके पास ही खड़ी एक गँवार सी दिखने वाली महिला ने बताया –“बाबू जी, यह मंदिर विमलशाह ने बनवाया था”
“क्यों?” मैंने अपनी जिज्ञासा ज़ाहिर की।
उसने कहा – “सुनिए तो……विमलशाह बहुत पैसे वाले थे। उनकी कोई संतान न थी। उन्होंने पुत्र-प्राप्ति के लिए अंबिका देवी की आराधना की। एक दिन जब वे घर लौट रहे थे तो उन्होंने देखा कि एक युवक एक बावड़ी पर लोगों को पानी पिला कर उनसे पैसे वसूल कर रहा था। विमलशाह ने युवक को पहचान लिया। विमलशाह जानते थे कि यह बावड़ी तो उस युवक के दादा ने इसलिए बनवाई थी कि वहाँ राहगीर रुकें, आराम करें, जल पिएँ और स्वस्थ अनुभव करें। शाह ने उस युवक से कहा –“बेटा, यह बावड़ी तुम्हारे दादा ने इसलिए बनवाई थी कि बाद की पीढ़ियाँ उसका नाम रोशन करेंगी, पर तुम तो राहगीरों से पैसे लेकर उनका नाम डुबो रहे हो”
युवक का जवाब था –“ जो मेरे दादा ने किया, वो जानें……जो मैं कर रहा हूँ, मैं जानूँ… और वैसे भी वो अब इस दुनिया में हैं भी नहीं, मैं तो पानी से पैसे कमाऊँगा”
यह वो समय था जब पानी तो क्या, गाँव में दूध बेचना भी ग़लत माना जाता था। विमलशाह के दो-तीन समझाने के बाद भी उस युवक ने शाह की एक न सुनी। उस समय मूल्यों में इस तरह का बदलाव शाह को अनैतिक लगा और वह बहुत गहरे तक आहत हुए। वे आहत मन से अंबिका देवी की शरण में गए। कहते हैं कि देवी ने उन्हें दर्शन दिए और पूछा –“ बोलो पुत्र वारिस चाहिए या आरस!” विमलशाह वारिस का हाल तो देख ही चुके थे। सोच रहे थे कि वारिस तो उनका नाम भी डुबो देगा, सो उन्होंने देवी से आरस यानी पत्थर यानी एक मंदिर बनवाने का वरदान माँगा। यह कहानी भले ही कपोल कल्पित हो, लेकिन ‘पूत कपूत तो क्यों धन संचय, पूत सपूत तो क्यों धन संचय’ जैसी उक्ति को चरितार्थ करते हुए भारतीय लोक-मानस एवं लोक-मूल्यों को तो रेखांकित करती ही है।
दरअसल विमलशाह गुजरात के चालुक्य महाराजा भीमसेन के प्रथम मंत्री एवं सेनापति थे। अनेक युद्धों में उन्होंने विजय तो प्राप्त की लेकिन सहस्रों प्राणियों के नर-संहार की करक भी उनके कलेजे में गहरे समा गई। इस नर-संहार का प्रायश्चित करने के लिए उन्होंने अंबिकादेवी की आराधना की थी और जैनाचार्य श्री धर्मघोष सूरी की शरण में भी गए। इन्हीं जैनाचार्य ने उन्हे आबू तीर्थ का उद्धार करने के लिए कहा। विमलशाह ने तब विमलवसहि मंदिर का निर्माण करवाया। ब्राह्मणों के विरोध के कारण कुछ समय तक मंदिर का निर्माण अवरूद्ध हुआ। लोगों का ऐसा विश्वास है कि एक बार फ़िर अंबिकादेवी की प्रेरणा से ही स्वर्ण चंपा के एक पेड़ के पास खुदाई की गई। वहाँ प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान ॠषभदेव की अति प्राचीन मूर्ति मिली, जिसे वहीँ स्थापित कर दिया गया। इन बातों का न तो कोई ऐतिहासिक साक्ष्य है, न पुरातात्विक प्रमाण। इतिहास, विज्ञान एक दिशा में चलता है तो लोगों का विश्वास दूसरी दिशा में। हम क्या मानें और क्या न मानें, यह हमारी सोच, समझ और दृष्टि पर निर्भर करता है।
विमलवसहि मंदिर देखने के बाद हम लूणवसहि मंदिर में प्रवेश करते हैं। सफेद संगमरमर से बना यह मंदिर कुछ-कुछ विमलवसहि मंदिर सा ही है। इसका निर्माण 1231 ईस्वी में गुजरात के सोलंकी राजा भीमदेव (द्वितीय) के मंत्री वस्तुपाल और तेजपाल ने करवाया। इसमें बाईसवें तीर्थंकर नेमीनाथ की प्रतिमा स्थापित है। यह प्रतिमा कसौटी के पत्थर की बनी हुई है। विमलवसहि मंदिर की तरह से ही यह भव्यता का प्रतिमान है। पहली देहरी से लेकर चौबीसवीं देहरी तक कई पौराणिक आख्यानों को मूर्तियों और भित्तिचित्रों के माध्यम से उकेरा गया है। इसीके साथ स्थापित लूणवसहि की हस्तीशाला की पाषाण प्रतिमाएँ कला की व्याख्या करती दिखाई देती हैं।
इसके बाद हम लोग पीतलहर मंदिर की ओर बढ़ते हैं। इसका निर्माणकाल 1374 से 1433 ईस्वी के बीच माना जाता है। गुजरात के भीमाशाह द्वारा बनवाए जाने के कारण इसे भीमाशाह का मंदिर भी कहा जाता है। यहीं पर 1468 में स्थापित आचार्य ॠषभदेव भगवान की पंचधातु की प्रतिमा भी स्थापित है और यह अनेक जैन श्रद्धालुओं की श्रद्धा का केन्द्र है। पंचधातु की इस प्रतिमा में पीतल की मात्रा अधिक होने के कारण इसे पीतलहर मंदिर कहा जाता है। जो भी हो हमें देलवाड़ा में स्थापित सभी प्रतिमाओं में यह प्रतिमा सबसे अधिक आकर्षक लगी।
मंदिर के प्रवेश-द्वार के बाईं ओर चिंतामणि पार्श्वनाथ का तीन मंज़िला चौमुखा मंदिर है। इसकी स्थापना श्वेतांबर जैनियों के खरतरगच्छ समुदाय के अनुयायी दरड़ा गोत्रीय ओसवाल संघवी मंडलिक तथा उसके कुटुम्बियों ने की थी। इसलिए इसे ‘खरतरवसहि मंदिर’ भी कहा जाता है। यह मंदिर सादा लेकिन विशाल है।
इन सभी मंदिरों की स्थापत्य कला, प्रतिमाओं और भित्तिचित्रों से मुग्ध होकर हम बाहर की ओर लौटते हैं। शाम ढलने लगी है। होटल पहुँचकर थोड़ी देर आराम के बाद हम नक्की झील की ओर रवाना होते हैं। मन है कि वहाँ नौका विहार करते हुए ही एक एक बीयर पी जाए। बीयर की व्यवस्था करने के बाद देखते हैं कि नौका विहार करने वालों की लाइन लगी हुई है। हम भी टिकिट लेकर वहीं बैठ जाते हैं। प्रतीक्षा लंबी नहीं करनी पड़ी और एक नौका और एक नाविक हमारे कब्ज़े में आ जाते हैं। सूरज डूबने को है। हम सूर्यास्त का नज़ारा झील के अंदर से ही देखना चाहते हैं। नाविक बीस-बाईस साल का एक युवा है। नाव पानी में उतर जाती है और वह धीरे-धीरे चप्पू चलाता हुआ नाव को झील के बीचों-बीच ले जाता है। हर ओर नावें ही नावें और हर नाव में मस्ती करते हुए लोग। सूर्यास्त का नज़ारा साफ नज़र आ रहा था। एकदम शफ़्फ़ाक़। और एक ओर खड़ी थी टाड राक। बिल्कुल मेंढक की आकृति लिए यह चट्टान सैलानियों के आकर्षण का केन्द्र है। सूर्य डूब गया है। अंधेरा घिरने लगता है। हमारी नाव जल-कमलों के आसपास घूम रही थी। थोड़ी ही दूर कुछ बत्तख़े तैरती दिखाई देती हैं और झील के पास की सड़कों पर घूमते कुछ लोग। हम लोग अपने बीयर के टिन खोल लेते हैं। चीयर्स और हल्का-हल्का सिप लेते हुए आसपास के माहौल में और भी गहरे डूबने लगते हैं। नाविक कहता है –“साहब, नाव में बीयर पीना मना है, बाहर लिखा भी है”। “हाँ, पढ़ा है, पर हम कोई हुड़दंग करने वाले नहीं हैं, तू यह बता कि यहाँ नाव कबसे चला रहा है” “मैं तो पैदा ही यहीं हुआ हूँ साहब, बचपन से ही यह काम कर रहा हूँ” वह जवाब देता है।
“अच्छा यह बता कि इस जगह को आबू या माऊंट आबू क्यों कहते हैं?”
“यह तो मुझे पता नहीं, लेकिन मैं आपको यह बता सकता हूँ कि इस झील का नाम नक्की झील कैसे पड़ा”।
वह भूल जाता है कि नाव में बीयर पीना मना है। हमसे पूछता है “साहब दूर तक लेकर जाऊँ…आध घंटा ज़्यादा लगेगा, सौ रूपया लूँगा”
“और जो बाहर इंतज़ार कर रहे हैं तुम्हारी नाव का”
“कुछ नहीं होता, आप बोलें तो सही…”
मैं हाँ कह देता हूँ और वह खुश होकर बताने लगता है- “ इसका नाम नक्की झील इसलिये है कि इसे ख़ुद देवताओं ने अपने नाखूनों से खोद कर बनाया है”
मेरा माथा एकदम ठनका कि नक्की शब्द संस्कृत के नख का ही तद्भव रूप है। नाविक मस्ती से गाता हुआ हमें अन्तत: किनारे लगा देता है और हम ताज़गी का एहसास लिये हुए पास ही फ़ैले छोटे से बाज़ार की भीड़ में खो जाते हैं।
अगली सुबह। आज हमने गोमुख जाने का कार्यक्रम बना लिया है। जिससे भी हम अपने कार्यक्रम का ज़िक़्र करते हैं, वह हमें एक ही बात कहता है – ‘साहब जी, बाऊजी, लाला जी, आप वहाँ मत जाइए, साढ़े सात सौ सीढ़ियाँ उतर कर नीचे जाना पड़ता है। नीचे तो आप उतर भी जाएँ, ऊपर कैसे आएँगे। साढ़े सात सौ सीढ़ी और वह भी ऊँची-ऊँची…’ दो लोगों ने तो दो ऐसे वाक़यात भी बता दिए कि फ़लाँ-फ़लाँ ने कोशिश की थी तो उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा और एक तो मरते-मरते बचा। हमारे पास अभी दो दिन और थे। हम उससे पहले एक दिन गुरू शिखर घूम कर आ चुके थे। गुरू शिखर आबू पर्वत का सबसे ऊंचा बिन्दु है। समुद्र-तल से 1772 मीटर की ऊँचाई पर स्थित दत्तात्रेय के इस मंदिर में भी लगभग तीन सौ पचास सीढ़ियाँ चढ़कर जाना पड़ता है। यहाँ हमने दो बहंगी वाले किराए पर ले लिए थे जो हमें अलग-अलग बहंगी में गुरू शिखर तक ले गए थे। बहंगी पर जाने के पीछे कुछ डर था और कुछ शौक भी। ऊपर जाकर हमें बहुत अच्छा लगा था। सबसे ऊपर पंचधातु का बना एक घंटा स्थित है जो आगंतुकों के हाथों के स्पर्श से बजता ही रहता है। यह घंटा 1411 ईस्वी से इसी तरह से बज रहा है और न जाने कितने लोगों के मन को संतोष और आशा से आप्लावित करता रहता है। हमें वहाँ जाकर सबसे अच्छा यह लगा कि वहाँ खड़े होकर पूरे आबू क्षेत्र का नज़ारा लिया जा सकता है। उतरते हुए हमने बहंगियों को छोड़ दिया और घूमते-घूमते उतर आए थे।
लेकिन गोमुख में इस तरह के बहंगी वालों की कोई व्यवस्था नहीं थी। शायद यहाँ पर्यटक कम आते थे या फ़िर बहंगी उठाने वाले कहारों में इतना दमखम नहीं था कि साढ़े सात सौ सीढ़ियाँ सवारी समेत उतर और चढ़ सकें। शशि ने भी कहा कि छोड़ो, कहीं और चलते हैं। दरअसल वह अपने पहले के दो अनुभवों से डरी हुई थी, लेकिन यह जोख़िम उठाने का मेरा मन था सो मैंने जैसे-तैसे शशि को भी यह कहकर तैयार कर लिया कि जहाँ भी थकान महसूस हुई हम वहीं से लौट आएंगे। हमने बहुत हल्का नाश्ता लिया और गोमुख की ओर रवाना हो गए।
ऊपर से झाँक कर देखा, सिवाय हरियाली के और कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था। देखा कि तीन नौजवान ऊपर आ रहे हैं। “नीचे क्या है?” मैंने पूछा। “एक मंदिर है जी और गोमुख…बस, आप जाएँगे!” उसके पूछने के पीछे हैरत का भाव साफ झलक रहा था। “हाँ, जाना तो चाहते हैं”
“अंकल जी, सुबह जल्दी आना चाहिए था, जब तक आपके ऊपर आने का वक़्त होगा, धूप तेज़ हो जाएगी, और फ़िर साढ़े सात सौ सीढ़ियाँ……चढ़ लेंगे आप?”
बस इतना कहकर तो जैसे उसने मेरी उम्र की जवानी को चुनौती ही दे दी थी। और मैंने अपना पहला कदम नीचे की ओर बढ़ा दिया। शशि भी पीछे-पीछे और फ़िर हम दोनों साथ-साथ चलने लगे। सीढ़ियाँ कहीं चौड़ी, कहीं सकरी, कहीं उनकी ऊंचाई कम तो कहीं ज़्यादा। पहाड़ को काट कर जैसी सीढ़ियाँ बनाई जा सकती थीं, बस कुछ वैसी ही। ज्यों-ज्यों हम नीचे उतरते हैं, हरियाली बढ़ती जाती है। आमों के पेड़ों की भरमार है। छोटी-छोटी अंबियाँ इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं। हर अंबी में किसी न किसी तोते की चोंच लगी हुई है। कुछ हवा के तेज़ झोंकों से गिर जाती हैं। अव्यवस्थित चट्टानों का सौन्दर्य हमें रह-रह कर अपनी ओर खींचता रहता है। हरियाली की गंध से भरी हवाओं को पीते और चट्टानों के सौन्दर्य को अपनी आँखों में भरते हुए हम साढ़े सात सौ सीढ़ियाँ लगभग चालीस मिनट में उतर गए। रास्ते में हमें एक बार भी रूकने या बैठने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। शशि का आत्मविश्वास लौट आया था।
नीचे उतरते ही बाईं ओर हमें गोमुख नज़र आता है। एक छोटा सा मंदिर और उसके बाहर गोमुख की आकृति की बनी संगमरमर की एक प्रतिमा। इसे ही गोमुख की संज्ञा दी गई है। इसी गोमुख से लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी के दर्शन होते हैं। गोमुख से एकदम साफ और शीतल जल लगातार गिर रहा है। गिरते हुए जल के सामने ही बने हुए संगमरमर के ही जलकुंड में पानी एकत्र होता है और फ़िर अपनी आगे की यात्रा पर निकल पड़ता है। इसी गोमुख को सरस्वती का उद्गम स्थान माना गया है। वहाँ का सारा वातावरण प्रकृति के सौन्दर्य और ऊष्मा से आप्लावित है। एकदम खामोशी और उस खामोशी को तोड़ती हुई गोमुख से निरंतर गिरती जलधार। जलकुंड का स्वच्छ जल। जलकुंड को घेरे हुए हैं केतकी, चमेली और मालती की लताएँ। स्वर्णचंपा और आम के पेड़ । इसी टैंक के पास ही स्थित हैं कोटेश्वर महादेव और सूर्यदेव का मंदिर।
हम इस समय वशिष्ठ आश्रम में थे। गोमुख के पास ही कामधेनु की पुत्री नंदिनी अपने बछड़े को दूध पिलाती हुई ममत्त्व को बिखेरती नज़र आती है। उसके बाद हम आश्रम में बने मंदिर में प्रवेश करते हैं। मंदिर में वशिष्ठ मुनि के दाएँ-बाएँ राम और लक्ष्मण प्रतिष्ठित हैं। पूछने पर वहाँ के महंत का पता चलता है। वह बाहर बने एक छप्पर के नीचे ही विराजमान हैं। हम उनके पास जाकर अपना परिचय देते हैं और वह हमें बड़े आदर के साथ अपने सामने बिछी एक चारपाई पर बैठने का न्यौता देते हैं। मेरे प्रश्न शुरू हो जाते हैं। वह बताते हैं कि इस प्राचीन आश्रम का न सिर्फ़ धार्मिक या पौराणिक महत्त्व है, ऐतिहासिक महत्त्व भी है। यह ॠषियों और संतों की पुण्यभूमि है और यहाँ कभी वेद-ॠचाओं का निरंतर सस्वर गान होता रहा है। आप चाहे कुछ भी कहें, यह तो मानना ही पड़ेगा कि संगीत का उदगम स्रोत वेद ही हैं। विशेषत: सामवेद। वह बताते हैं कि यहाँ से आधा मील पूर्व में मुनि जमदग्नि का आश्रम है, आधा मील दक्षिण की दूरी पर नागतीर्थ है और आध मील पश्चिम में महर्षि वेद व्यास का आश्रम है और अगर आप इसी दिशा में तीन मील और आगे चले जाएँ तो गौतम आश्रम मिलेगा। हम थोड़े से चकित होते हैं और संभवत: इस बात से आहलादित भी कि हम किन्हीं महान व्यक्तियों की पुण्य-भूमि में खड़े हैं। वहाँ कुछ काम करने की प्रेरणा मिलना निश्चित है। मंदिर के बाहर ही पड़ी कुछ ध्वस्त प्रतिमाओं के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि पहली जून 1973 की रात थी। भारी बारिश के चलते पर्वत का एक बड़ा हिस्सा टूट कर नीचे सरका तो सीधा इसी मंदिर पर आ कर गिरा। उससे मंदिर का एक बड़ा हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया। तभी से यह प्रतिमाएँ भग्नावस्था में ही यहाँ स्थापित हैं। तब तक चाय बन कर आ गई थी। हमने वेदों, पुराणों और आधुनिक मान्यताओं को लेकर उनके साथ लगभग एक घंटा तक बातें कीं। अपनी पारंपरिक धार्मिक मान्यताओं के बावजूद वह मन से खुले हुए लगे।
अब हमारे लौटने का समय था और हमें साढ़े सात सौ से भी कुछ अधिक सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर पहुंचना था। शशि ने गोमुख का पानी दो बोतलों में भर लिया। उसे दिल्ली लौटकर कुछ श्रद्धालुओं को वह पवित्र जल देना था। मैंने रास्ते के लिए एक बोतल पानी और एक स्पराइट वहीं बाहर बनी एक छोटी सी दुकान से खरीद ली। उर्ध्व अभियान शुरू हुआ। पहले ही झटके में मैं पचास सीढ़ियाँ चढ़ गया। मेरी आदत है कि जब भी कहीं मैं सीढ़ियाँ चढ़ता या उतरता हूँ तो गिनता रहता हूँ। पीछे-पीछे शशि भी धीरे-धीरे आ गई और हम वहीँ बने एक बनेरे पर बैठ गए। बारह बज चुके थे। धूप तीखी होने लगी थी। हवा के चलने से पेड़ों से गिरी छोटी-छोटी अंबियाँ और सामने पहाड़ के कटने से बनी तरह तरह की आकृतियाँ रूचिकर लग रही थीं। कच्ची अंबी बहुत दिन बाद खाने के लिए मिली थीं। लेकिन कितनी खाते। एक या दो। बस। पाँच-सात मिनिट के अंतराल के बाद हम चालीस और फ़िर आराम, फ़िर तीस और फ़िर आराम और फ़िर बीस-बीस सीढ़ियाँ हर अंतराल के बाद चढ़ते हुए हम लगभग दो बजे ऊपर थे। रास्ते में एक नौजवान की तबियत बिगड़ती देख हम परेशान भी हुए और अपने स्टेमिना पर कुछ खुश भी।
वहाँ से सीधे हम लोग चाचे दे होटल पहुँचे। एक-एक ठंडी बीयर पी। हल्का-फ़ुल्का खाना खाया और होटल में जा कर अपने अपने बिस्तर पर पसर गए। थोड़ी देर बाद हमारी आँख लग गई और जब उठे तो अपने को तरो-ताज़ा महसूस कर रहे थे। शाम को हमने एक बार फ़िर नक्की झील में नौका विहार का आनंद लिया और टाड राक को एक बार फ़िर ध्यान से देखा। ऐसा लग रहा था जैसे एक मेंढक झील में कूदने को तैयार बैठा है। उसके बाद हमने चाचे दा होटल की ओर रुख किया। होटल के लान में मेज़ें लगी हुई थी। सामने एक मंच पर बैठे कुछ लोक-गायक राजस्थानी संगीत शैली में लोक-गीत गा रहे थे और दो महिलाएँ और एक बच्चा उन गीतों और संगीत पर मस्ती में नाच रहे थे। हमने ठीक मंच के सामने वाली मेज़ चुनी। उस मेज़ के पास ही एक अंगीठी जल रही थी। रात की उस ठंडक से वह अंगीठी हल्की-हल्की तपिश हम तक फ़ेंक रही थी। बीयर के गिलास भर कर हम बहुत देर तक उस माहौल और मौसम में डूबते-उतराते रहे।
अगला दिन हमने पूरी तरह ब्रह्माकुमारी आश्रम और मठ देखने समझने के लिए सुरक्षित रखा हुआ था और उसी के मुताबिक़ अपना यात्रा-अभियान शुरू किया। माउंट आबू ब्रह्माकुमारी संप्रदाय में विश्वास करने वाले लोगों का काबा है। यहाँ कुल तीन बड़े ऐसे मठ हैं, जहाँ ब्रह्माकुमारी आंदोलन और विश्वासों के बारे में जानकारी जुटाई जाती है। हालांकि दिल्ली में मेरे निवास के पास ही ब्रह्माकुमारी आश्रम मौजूद है, लेकिन मैंने उसे हमेशा सिर्फ़ बाहर से ही देखा है। माउंट आबू में आकर यह इच्छा बलवती हो उठी कि इनके बारे में कुछ जाना जाए। हम सबसे पहले नक्की झील के पास ही ओम शान्ति भवन पहुँचे। वहाँ कुछ सेवक हमारे जैसे पर्यटकों के इंतज़ार में थे और उनका काम ब्रह्माकुमारी संप्रदाय में लोगों को दीक्षा लेने के लिए तैयार करना था। हमारे साथ ही छह-सात और लोग भी दाखिल हुए थे, सो उन्होंने हम सबका एक ग्रुप बनाया और एक बड़े हाल में ले गए। प्रचारक का सबसे पहला कथन था-“मैं आपको ब्रह्माकुमारी धर्म के बारे में बताऊँगा, लेकिन शर्त यह है कि जब तक मैं बताता रहूँ, तब तक कोई भी प्रश्न नहीं करेगा” मेरे लिए चुप रहना संभव नहीं था, मैंने पूछा “ऐसा क्यों, अगर कोई प्रश्न ही नहीं पूछेगा तो वह आपके इस धर्म के बारे में ठीक से समझेगा कैसे?”
“हो सकता है कि आपके मन में जो प्रश्न आएँ, उन सबका निवारण मेरी बातों से पहले ही हो जाए, इसलिए पहले प्रश्न पूछना समय व्यर्थ करना होगा” उनका जवाब था।
“चलिए हम आपकी बात मान लेते हैं, जब तक आप बोलेंगे, हम आपको सुनेंगे, लेकिन उसके बाद आपको हमारे सवालों के जवाब ज़रूर देने होंगे” मैंने कहा उन महोदय ने बिना मेरी बात का नोटिस लिए हुए अपनी बात शुरू की, जिसका लुब्बे-लुबाब कुछ इस तरह से था कि लेखराज कृपलानी नाम के हीरों के व्यापारी को एक रात स्वयं शिव ने दर्शन दिए और कहा कि यह दुनिया जल्दी ही नष्ट होने वाली है और जो लोग ब्रह्मा की शरण में आएँगे, सिर्फ़ वही लोग बचेंगे और फ़िर वही सच्चे लोग अगले 1200 साल तक इस पृथ्वी पर बने स्वर्ग में रहेंगे। शिव की बात सुनकर लेखराज ने अपना सारा कारोबार समेट लिया और उस ज़माने में दस लाख रूपए लेकर सच्चे लोगों को जोड़ने की यात्रा में निकल पड़े……राजयोग के माध्यम से लोगों के चित्त को शुद्ध किया…सबसे पहले उन्होंने अपने साथ सिर्फ़ महिलाओं को जोड़ा और उन्हें ब्रह्माकुमारी का दर्जा दिया……फ़िर बाद में ब्रह्माकुमार के रूप में पुरुष भी जुड़ गए। आज इस धर्म को मानने वालों की संख्या आठ लाख तेरसठ हज़ार है और अब सिर्फ़ हमारे पास सैंतींस हज़ार की जगह और बची है। वे सैंतीस हज़ार लोग बड़े भाग्यशाली होंगे, जिन्हें ब्रह्माकुमारी धर्म में जगह मिलेगी…क्योंकि यह दुनिया जल्दी ही नष्ट होने वाली है और नष्ट होने के बाद केवल 900000 ब्रह्माकुमारियाँ/ब्रह्माकुमार ही बचेंगे। इसलिए हमें जल्दी से जल्दी ब्रह्माकुमारी पंथ से ‘स्वर्ग’ का पासपोर्ट ले लेना चाहिए। वे और भी बहुत कुछ बोले और कई बातें बार-बार बोले। जब वे बोल कर शांत हुए तो मैंने उन महाशय से सिर्फ़ इतना पूछा – “आपके इस पंथ से पहले और भी कई धर्म और पंथ चल रहे थे, मुझे सिर्फ़ इतना बता दीजिए कि इस पंथ में ऐसा नया क्या था जिसे स्थापित करने के लिए एक नया पंथ चलाना पड़ा”। जवाब में उन्होंने फ़िर वही सब सुनाना शुरू कर दिया जो पहले बता चुके थे। मैंने टोका तो बोले –“आपके दिमाग में कूड़ा भरा हुआ है, हमारे शिविर में दस दिन रहिए तो सबसे पहले हम आपके दिमाग से यह कूड़ा निकालेंगे, जब तक यह कूड़ा नहीं निकलता, तब तक आप ब्रह्माकुमारी समुदाय के विचारों को नहीं समझ सकते”
मैंने कहा-“ महाशय मुझे नहीं पता की आपका नाम क्या है लेकिन मुझे तो लगता है कि कूड़ा आपके दिमाग में भरा हुआ है। आप बजाय सवाल का सामना करने और उसका जवाब देने के लिए एक घिसे हुए रिकार्ड की तरह से फ़िर बजना शुरू हो गए”। वह साहब थोड़ा अचकचा गए। शायद उन्हें इससे पहले किसी ने इस तरह से कुछ कहा नहीं था। हमारे साथ जो और लोग बैठे थे वे भी टुकुर-टुकुर कभी मुझे और कभी उन महाशय को देखने लगे। ज़बान पर नियंत्रण करने की कोशिश करते हुए बोले- “आप हमारी दादी से मिलिए”। दादी यानी उनकी मुखिया। कभी दादा होता है तो कभी दादी। एक हाइरारिकी कायम है यहाँ। दादी तक पहुँचने के लिए कुछ सीढ़ियाँ चढ़ना होता है। बहरहाल मुझे पता चल गया था कि इन महाशय से बात करने का कोई अर्थ नहीं लेकिन फ़िर भी उन्हें चलते-चलते मैंने इतना तो कह ही दिया की ब्रह्माकुमारी पंथ ने अगर उन्हें यह सिखाया है तो बहुत अफ़सोस की बात है”। मज़ेदार बात यह है कि इसके बाद उनके दो मठों में हम जिस भी ब्रह्माकुमार या ब्रह्माकुमारी से मिले, वही सुना हुआ रिकार्ड ही बार-बार बजता था। जो भी हो उनके आश्रमों और मठों की धूमधाम और शान देख कर कहीं ईर्ष्या का भाव भी आ रहा था कि कोई ऐसा ही पंथ क्यों न चला दिया। क्या रखा है साहित्य-वाहित्य या दूसरी कलाओं में। बहरहाल!
अगले ही दिन हमें लौटना था और हमारे पास तरह तरह की स्मृतियों का एक भरा-पूरा भंडार था।
2 टिप्पणियाँ
aape ek bahut hi sundar aur prabhavsali yatra vritant diya hai.
जवाब देंहटाएंits nice
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.