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भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति [आलेख] - डॉ. काजल बाजपेयी


संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र रूप का नाम है जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने, खाने-पीने, बोलने, नृत्य, गायन, साहित्य, कला, वास्तु आदि में परिलक्षित होती है। संस्कृति का वर्तमान रूप किसी समाज के दीर्घ काल तक अपनायी गयी पद्धतियों का परिणाम होता है। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। सभ्यता से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है।

मैं बचपन से दो प्रकार की संस्कृतियों के बारे में सुनती आ रही हूँ। भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति या अंग्रेजी संस्कृति । हमारे भारत देश की संस्कृति को भारतीय अथवा पूर्वी संस्कृति के नाम से जाना जाता है और यूरोप, अमरीका आदि देशों की संस्कृति को पाश्चात्य अथवा पश्चिमी संस्कृति के नाम से जाना जाता है। पाश्चात्य अथवा पश्चिमी संस्कृति को हमेशा से बुरा बोला।

मैं भारतीय संस्कृति में पली-बढ़ी हूँ। इसलिए मेरी समस्त क्रियाएँ और व्यवहार भारतीय संस्कृति का पर्याय है।

अभी कुछ दिनों के लिए मैंने यूरोपीय यात्रा की। 10 दिन मैंने जर्मनी और पेरिस में बिताए। मैंने हमेशा से सुना है कि पूर्वी संस्कृति हमारी भारतीय संस्कृति कहलाती है जिसमें सदाचार, त्याग, संयम, धर्म, सामाजिक परंपराएँ, रीति-रिवाज़ आदि हैं। आज तक जब भी भारतीय संस्कृति में कुछ भी संस्कृति के प्रति अपवाद रहा है तो पाश्चात्य संस्कृति को ही दोष दिया जाता रहा है। परंतु आज जब मैंने खुद भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति दोनों का अनुभव लिया तो यही अहसास किया कि ये एकदम गलत है कि भारतीय संस्कृति पर पाश्चात्य संस्कृति का दुष्प्रभाव है। मैंने कुछ महत्वपूर्ण तथ्य निकाले हैं जिनमें देखा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति पर पाश्चात्य संस्कृति का कोई भी दुष्प्रभाव व्यक्त नहीं होता है। पाश्चात्य संस्कृति के सभी सकारात्मक पहलू हैं। अगर उन्हें अपनाया जाए तो हमारा भारत देश और उसकी भारतीय संस्कृति भी काफी विकसित होगी। पाश्चात्य संस्कृति के विरुद्ध सोच रखने वाले लोगों को ये सकारात्मक पहलुओं से दृष्टिपात कराना बहुत आवश्यक है:

1. पहनावा - सबसे पहले अगर हम पहनावे की बात करें तो जहाँ भारतीय संस्कृति का पहनावा सूट, साड़ी, कुर्ता-पाजामा आदि है तो वहीं पाश्चात्य संस्कृति का पहनावा पैंट-शर्ट, स्कर्ट-टॉप आदि है। मैंने हमेशा देखा है कि जब अंग्रेज़ लोग भारत में आते हैं तो यहाँ के पहनावे की ओर आकर्षित होते हैं। तो स्वभावतः जब कोई भारतीय विदेश जाता है तो वह भी वहाँ के पहनावे की ओर आकर्षित होता है लेकिन साथ-ही-साथ उस पहनावे को अपना लेता है। तो इसमें गलती किसकी है??? यकीनन इसमें गलती उस भारतीय की है जो अपने पहनावे को छोड़कर दूसरे देश के पहनावे को अपना रहा है। ये उस व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है जो अपने पहनावे को छोड़कर दूसरे देश के पहनावे को अपना रहा है। इसमें कहीं भी पाश्चात्य संस्कृति का कोई दोष नहीं है।

2. भाषा - आज अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी संस्कृति के रंग में रंगने को ही आधुनिकता का पर्याय समझा जाने लगा है। प्रत्येक सरकारी कार्यालय में हिंदी और अंग्रेजी द्विभाषी रूप में काम करना आवश्यक है लेकिन आज भी कई सरकारी कार्यालय हैं जिनमें अंग्रेजी में ही कार्य किया जाता है, मीटिंग की जाती हैं और सम्प्रेषण भी अंग्रेजी में किया जाता है। जब हमारे भारत देश की आधारिक भाषा हिंदी है तो क्यों उसे अपनाने में लोग कतराते हैं।

3. सामाजिक-स्थिति - एक समय था जब हमारे युवाओं के आदर्श, सिद्धांत, विचार, चिंतन और व्यवहार सब कुछ भारतीय संस्कृति के रंग में रंगे हुए होते थे। वे स्वयं ही अपने संस्कृति के संरक्षक थे, परंतु आज उपभोक्तावादी पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध से भ्रमित युवा वर्ग को भारतीय संस्कृति के अनुगमन में पिछड़ेपन का एहसास होने लगा है। जिस युवा पीढ़ी के उपर देश के भविष्य की जिम्मेदारी है , जिसकी उर्जा से रचनात्मक कार्य सृजन होना चाहिए, उसकी पसंद में नकारात्मक दृष्टिकोण हावी हो चुका है। संगीत हो या सौंदर्य, प्रेरणास्त्रोत की बात हो या राजनीति का क्षेत्र या फिर स्टेटस सिंबल की पहचान सभी क्षेत्रों में युवाओं की पाश्चात्य संस्कृति में ढली नकारात्मक सोच स्पष्ट परिलछित होने लगी है। आज महानगरों की सड़कों पर तेज दौड़ती कारों का सर्वेक्षण करे तो पता लगेगा कि हर दूसरी कार में तेज धुनों पर जो संगीत बज रहा है वो पॉप संगीत है। युवा वर्ग के लिए ऐसी धुन बजाना दुनिया के साथ चलने की निशानी बन गया है। युवा वर्ग के अनुसार जिंदगी में तेजी लानी हो या कुछ ठीक करना हो तो गो इन स्पीड एवं पॉप संगीत सुनना तेजी लाने में सहायक है।

हमें सांस्कृतिक विरासत में मिले शास्त्रीय संगीत व लोक संगीत के स्थान पर युवा पीढ़ी ने पॉप संगीत को स्थापित करने का फैसला कर लिया है।

आज विदेशी संगीत चैनल युवाओं की पहली पसंद बनी हुई है। इन संगीत चैनलों के ज्यादा श्रोता 15 से 34 वर्ष के युवा वर्ग हैं। आज युवा वर्ग इन चैनलों को देखकर अपने आप को मॉडर्न और ऊँचे ख्यालों वाला समझ कर इठला रहा है। इससे ये एहसास हो रहा है कि आज के युवा कितने भ्रमित हैं अपने संस्कृति को लेकर और उनका झुकाव पाश्चात्य संस्कृति की ओर ज्यादा है। ये भारतीय संस्कृति के लिए बहुत दुख: की बात है।

आज युवाओं के लिए सौंदर्य का मापदण्ड ही बदल गया है। विश्व में आज सौंदर्य प्रतियोगिता कराई जा रही है, जिससे सौंदर्य अब व्यवासाय बन गया है। आज लड़कियाँ सुन्दर दिख कर लाभ कमाने की अपेक्षा लिए ऐन -केन प्रकरण कर रही है। जो दया, क्षमा, ममता ,त्याग की मूर्ति कहलाती थी उनकी परिभाषा ही बदल गई है। आज लड़कियां ऐसे ऐसे पहनावा पहन रही हैं जो हमारे यहाँ अनुचित माना जाता है। आज युवा वर्ग अपने को पाश्चात्य संस्कृति मे ढालने मात्र को ही अपना विकास समझते हैं। आज युवाओं के आतंरिक मूल्य और सिद्धांत भी बदल गये हैं। आज उनका उददेश्य मात्र पैसा कमाना है। उनकी नजर में सफलता की एक ही मात्र परिभाषा है और वो है दौलत और शोहरत । चाहे वो किसी भी क्षेत्र में हो । इसके लिए वो कुछ भी करने को तैयार हैं।

संपन्नता दिखाकर हावी हो जाने का ये प्रचलन युवाओं को सबसे अलग एवं श्रेष्ठ दिखाने की चाहत के प्रतीक लगते हैं।

4. संस्कृति - वस्तुत: हम भारतीय अपनी परम्परा, संस्कृति , ज्ञान और यहाँ तक कि महान विभूतियों को तब तक खास तवज्जो नहीं देते जब तक विदेशों में उसे न स्वीकार किया जाये। यही कारण है कि आज यूरोपीय राष्ट्रों और अमेरिका में योग, आयुर्वेद, शाकाहार , प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, होम्योपैथी और सिद्धा जैसे उपचार लोकप्रियता पा रहे हैं जबकि हम उन्हें बिसरा चुके हैं। हमें अपनी जड़ी-बूटियों, नीम, हल्दी और गोमूत्र का ख्याल तब आता है जब अमेरिका उन्हें पेटेंट करवा लेता है। योग को हमने उपेक्षित करके छोड़ दिया पर जब वही ‘योगा’ बनकर आया तो हम उसके दीवाने बने बैठे हैं।

पाश्चात्य संस्कृति में पले-बसे लोग भारत आकर संस्कार और मंत्रोच्चार के बीच विवाह के बन्धन में बँधना पसन्द कर रहे हैं और हमें अपने ही संस्कार दकियानूसी और बकवास लगते हैं।

5. बोलचाल - हमारे देश में प्रत्येक राज्य की अपनी भाषा है। भाषाओं की विभिन्नता के समावेश के बावजूद भी अंग्रेजी को बोलचाल का माध्यम बनाया जाता है। मुझे समझ नहीं आता कि जितनी मेहनत हम लोग अंग्रेजी सीखने में करते हैं उतनी मेहनत करके हम अपने ही भारत देश की किसी और भाषा को सीखने में क्यों नहीं करते हैं? पाश्चात्य अथवा अंग्रेजी संस्कृति को दोष देने से पहले प्रत्येक भारतीय को अपने गिरेबॉन में झाँक कर देखना चाहिए कि वो खुद अपनी संस्कृति के प्रति कितना निष्ठावान है।

6. सफाई - सीधी सच्ची बात है कि जब तक हमारे घर, द्वार और रास्ते गन्दे रहेंगे, हमारी आदतें गन्दी रहेंगी तब तक हम अपने आपको सभ्य और सुसंस्कृत नहीं कह सकते । आज पूरा भारत और भारतीय समाज गन्दगी का अखाड़ा बन गया है, इस बात से न हम इन्कार कर सकते हैं न आप । विदेशों में सफाई के प्रति लोगों में जागरूकता आ चुकी है। जैसे भारत में बच्चों को बचपन से बड़ों के पैर छूना, नमस्ते करना सिखाया जाता है उसी तरह अमेरिका में बच्चों को कचरे को डस्टबिन में फेंकना सिखाया जाता है। जहां डस्टबिन नहीं होता वहां बच्चे कचरे को अपने बैग में रख लेते हैं। हमें भी कुछ ऐसी ही पहल कर अपनी कॉलोनी और शहर को स्वच्छ रख सकते हैं।

7. महंगाई - भारत में आज लोगों को मूलभूत सुविधाओं के लिए तरसना पड़ रहा है; जैसे- रहने के लिए घर नहीं हैं, पीने के लिए साफ़ पानी नहीं है, खाद्य पदार्थ की गुणवत्ता पर विश्वास नहीं किया जा सकता, बिजली जो आती कम है जाती ज्यादा है, बढ़ती मंहगाई ने सबको तंग किया हुआ है। मंहगाई इन सारी समस्याओं पर ज्यादा भारी पड़ती है। क्योंकि यदि मंहगाई बढ़ती है तो वह इन सभी पर सीधे असर डालती है। सरकार चाहे इसका कोई भी कारण दे परन्तु आम आदमी इस मंहगाई से त्रस्त है। मंहगाई उनके जीवन को खोखला बना रही है। महंगाई हर जगह अपना मुँह फाड़े खड़ी है। फिर वह कैसी भी क्यों न हों। भारत की स्थिति अब इस उक्ति पर फिट बैठती है - "आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपया" । जबकि विदेशों में महंगाई से लोग त्रस्त नहीं हैं। जर्मनी में अगर किसी के पास एक यूरो भी हो तो वह उससे कुछ खरीद कर खा सकता है, उसको भूखा नहीं मरना पड़ेगा। वहाँ पर मेहनत-मजदूरी करके रहा जा सकता है।

8. टी.वी. चैनल - भारत में टी.वी. चैनलों की भरमार है। पहले सिर्फ हिन्दी में ही चैनलों का प्रसारण होता था और चैनल भी दो ही थे। लेकिन धीरे-धीरे चैनलों के साथ-साथ भाषाएँ भी बढ़ती गईं। आज हिंदी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं में भी चैनलों का प्रसारण हो रहा है जो एक अच्छी बात है। लेकिन भारतीय चैनल अंग्रेजी को अब भी अपनाकर चल रहे हैं। विदेशों में उनकी स्थानीय भाषा में ही चैनलों का प्रसारण होता है। वहाँ मुश्किल से एक या दो चैनल ही अंग्रेजी में प्रसारित होते हैं। वहाँ अपनी स्थानीय भाषा को महत्व दिया जाता है। इसी तरह भारतीय परिवेश में भी स्थानीय भाषा का वर्चस्व होना चाहिए।

9. व्यवस्था-प्रणाली - भारत में कुछ भी व्यवस्थित रूप से नहीं है। चाहे वो बस की लाईन हो, दुकान में खरीददारी की लाईन हो, या कहीं कालेज में प्रवेश लेने की लाईन हो - हर जगह धक्का-मुक्की लगी रहती है। सड़क पर ना वाहन चलाने का व्यवस्थित तरीका है और ना ही पैदल चलने वालों को सड़क पर चलने का तरीका आता है। सड़कों पर ध्वनि प्रदूषण की मारा-मारी है। लोग एक-दूसरे से टकरा कर चलने में अपनी शान समझते हैं। लड़कियों को छेड़ने के तो मामले आम हो गए हैं। भारत में लड़कियाँ कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। भ्रष्टाचार हर जगह अपने पैर पसारे हुए हैं।

विदेशों में हर जगह सुव्यवस्था समाई हुई है। वहाँ कोई भी किसी के व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता। हर काम सुचारू रूप से समय पर होता है। अंग्रेज समय के बहुत पाबंद होते हैं। हर काम व्यवस्थित ढंग से होने पर विदेश और विदेश के लोग तरक्की करते जा रहे हैं।

10. राजनीति - भारतीय राजनीति अकंठ भ्रष्टाचार में डूब चुकी है, देश आर्थिक गुलामी की ओर अग्रसर है, ऐसे में भ्रष्टाचार और कुशासन से लोहा लेने के बजाय समझौतावादी दृष्टिकोण युवाओं का सिद्धांत बन गया है। उनके भोग विलास पूर्ण जीवन में मूल्यों और संघर्षो के लिए कहीं कोई स्थान नहीं है।

11. प्रचार-प्रसार माध्यम - आज भारत में हर प्रचार माध्यम के बीच स्वस्थ प्रतियोगिता के स्थान पर पश्चिमी मानदंडों के अनुसार प्रतिद्धंद्धी को मिटाने की होड़ लगी हुई है। सनसनीखेज पत्रकारिता के माध्यम से आज पत्र- पत्रिकाएं, ऐसी समाजिक विसंगतियो की घटनाओं की खबरों से भरी होती हैं जिसको पढ़कर युवाओं की उत्सुकता उसके बारे में और जानने की बढ़ जाती है। युवा गलत तरह से प्रसारित हो रहे विज्ञापनों से इतने प्रभावित हो रहे है कि उनका अनुकरण करने में जरा भी संकोच नहीं कर रहें है।

हम भले ही गाँधी की के आदर्शों को तिलांजलि दे रहे हैं पर अमेरिका में पिछले कुछ वर्षों में करीब पचास विश्वविद्यालयों और कॉलेजों ने गाँधीवाद पर कोर्स आरम्भ किये हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्ट वर्जीनिया, यूनिवर्सिटी ऑफ हवाई, जॉर्ज मेरून यूनिवर्सिटी के अलावा और भी कई विश्वविद्यालयों ने अपने यहाँ गाँधीवाद विशेषकर गाँधी जी की अहिंसा और पड़ोसियों विरोधाभास ही लगता है कि हम भारतीय आत्मगौरव और राष्ट्रीय स्वाभिमान की अनदेखी करते हुए अपनी संस्कृति और उसकी समृद्ध विरासत को नक्कारने का प्रयास कर रहे हैं।

हम पाश्चात्य देशों या विदेशों या अंग्रेजों की आलोचना उनके स्वछंद व्यव्हार को देखते हुए करते हैं परन्तु उनके विशेष गुणों जैसे देश-प्रेम, ईमानदारी, परिश्रम, कर्मठता को भूल जाते हैं। जिसके कारण आज वे विश्व के विकसित देश बने हुए हैं। सिर्फ उनके खुलेपन के व्यवहार के कारण उनकी अच्छाइयों की उपेक्षा करना और उनका विरोध करना कितना तर्कसंगत है?

परिवर्तन प्रकृति का नियम है, लेकिन ये परिवर्तन हमें पतन के ओर ले जायेगा । युवाओं को ऐसा करने से रोकना चाहिए नहीं जिस संस्कृति के बल पर हम गर्व महसूस करते है, पूरा विश्व आज भारतीय संस्कृति की ओर उन्मूख है लेकिन युवाओं की दीवानगी चिन्ता का विषय बनी हुई है। हमारे परिवर्तन का मतलब सकारात्मक होना चाहिए जो हमें अच्छाई से अच्छाई की ओर ले जाए । युवाओं की कुन्ठित मानसिकता को जल्द बदलना होगा और अपनी संस्कृति की रक्षा करनी होगी । आज युवा ही अपनी संस्कृति के दुश्मन बने हुए हैं। अगर भारतीय संस्कृति न रही तो हम अपना अस्तित्व ही खो देगें। संस्कृति के बिना समाज में अनेक विसंगतियॉं फैलने लगेगी, जिसे रोकना अतिआवश्यक है। युवाओं को अपने संस्कृति का महत्व समझना चाहिये और उसकी रक्षा करनी चाहिए । भारतीय संस्कृति को सुदृढ़ और प्रभावी बनाने के लिए निम्नलिखित बातों को अपनाना चाहिए :

(1) भारत को विज्ञान-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अग्रिम पंक्ति में आना पड़ेगा। और यह भी आवश्यक है कि उसकी गड़मड़ संस्कृति के स्थान पर एक समेकित भारतीय संस्कृति जीवन्त रूप में आए।
(2) प्रदेशों की अपनी भाषाओं में ही मुख्य शिक्षा हो तथा प्रदेशों का राजकाज भी। प्रमुख भारतीय भाषाओं में यह शक्ति है।
(3) अंग्रेजी की शिक्षा उतनी ही दी जाए जितनी एक विदेशी भाषा की उपयोगिता को देखते हुए आवश्यक है। अंग्रेजी को रोजी-रोटी के लिए कतई आवश्यक न बनाया जाए।
(4) अंग्रेजी का स्थान हिन्दी को नहीं लेना है ।
(5) मात्र उतनी ही हिन्दी की शिक्षा दी जाए जितने में सारे प्रदेशों का परस्पर संपर्क सध सके। हिन्दी को रोजी-रोटी के लिए आवश्यक न बनाया जाये। हिन्दी भाषियों को एक अन्य भारतीय भाषा में इतनी ही योग्यता प्राप्त करना अनिवार्य बनाया जाये जो उनके वैकल्पिक कार्य क्षेत्र के लिए उपयुक्त हो।
(6) एक सशक्त अनुवाद-सेना तैयार की जाए।
(7) सांस्कृतिक शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाए ताकि भ्रष्टता का उन्मूलन किया जा सके।
(8) जब संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा तथा सम्पर्क भाषा बनाने का आदेश है¸ तथा क्षेत्रीय भाषाओं को अपने क्षेत्रों में राजकाज करने का आदेश है¸ और हिन्दी तथा क्षेत्रीय भाषाओं में अपना कार्य करने की पूरी क्षमता है¸ तब यह षड्यन्त्र नहीं तो क्या है जो इन भाषाओं को उचित स्थान नहीं देने देता? यह स्थिति बहुत दुखदायक है क्योंकि उदात्त या मानवीय संस्कृति ही जीवन सुखी बना सकती है।

उपरोक्त ध्येय नितान्त वांछनीय हैं और यह हमारे आदान-प्रदान के सौहार्द पर¸ त्याग की भावना पर¸ आपसी प्रेम की भावना पर तथा मुख्यत: अपने देश-प्रेम पर निर्भर करता है। प्रेम इस विषय में सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है। हमारे राष्ट्र में मूलभूत रूप से सांस्कृतिक एकता है। हमारी मूल संस्कृति ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ वाली संस्कृति है जिसका अस्तित्व सारे भारत में है। हमारे साहित्य में एकता है¸ एकरूपता नहीं¸ एकात्मता है। हम संकीर्ण राजनैतिक स्वार्थो के ऊपर उठ सकते हैं। हमारी भाषाओं में अधुनातम विज्ञान-प्रौद्योगिकी को अभिव्यक्त करने की शक्ति है। भारत में न केवल विश्व-शक्ति बनने की क्षमता है वरन विश्व को भोगवाद के राक्षस से बचाने की भी क्षमता है।


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डॉ. काजल बाजपेयी
संगणकीय भाषावैज्ञानिक
सी-डैक, पुणे

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29 टिप्पणियाँ

  1. आपकी पोस्ट चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें
    http://charchamanch.blogspot.com
    चर्चा मंच-791:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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  2. सतर्क विवेचन ,गंभीर प्रस्तुति हेतु आभार !

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  3. डॉ. काजल बाजपेयी ne bahut hi ghatiya lekh likha hai....

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  4. बहुत अच्छे - अदभुत

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  5. उत्तर
    1. What utppam , I am a Canadian and have being living there for more than 10 years and nobody else know how good are foreign countries and I had also lived in india for 5 years and in first sight I came to know that India is a shrewd and a bad country so stop appreciating it

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    2. What utppam , I am a Canadian and have being living there for more than 10 years and nobody else know how good are foreign countries and I had also lived in india for 5 years and in first sight I came to know that India is a shrewd and a bad country so stop appreciating it

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  6. कुछ विचार व्यक्तिगत रूप से कहना चाहूंगा इस सम्बन्ध में

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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  8. बहुत ही अच्छा लगा

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  9. डॉ.बाजपेयी का लेख सराहनीय है , गुलाम मानसिकता का परित्याग करने के लिए देश को अँग्रेजी की गुलामी से मुक्त करना परम आवश्यक है इसके लिए बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षित करना अनिवार्य है अँग्रेजी के कारण समस्त भारतीय भाषाओ का विकास अवरुद्ध हुआ है

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  10. पहनावा पर आप टिप्पणी ना दे तो अच्छा रहेगा क्योंकि वैदिक काल में महिलाएं उत्तरिया और अंतरिया पहनती थी जिसमे पूरे शरीर को ढकना जरुरी नहीं था और पुरुष भी पूरे कपड़े में नहीं होते थे। अगर आपका सोच ऐसा है तो आप किसी मुल्लो से काम नहीं क्योंकि भारतीय संस्कृति को खत्म करने वाले तो मुगल थे क्योंकि मुगलों से पहले का शाशन व्यवस्था भारत का बहुत ही अच्छा था।

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