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हृदय की मौन भाषा चाहिये [कविता] - सुशील कुमार

[अपने एक दुश्मन-दोस्त के लिये...]
कविता के लिये
सिर्फ़ शब्द नहीं मुझे
हृदय की मौन भाषा चाहिये
मन की अदृश्य लिपियों में गढ़ी
सुगबुगाते हुए और
अभिव्यक्ति को बेचैन
भावों के अनगिन तार दे दो मुझे

कविता के लिये
मात्र आँखों का कँवल नहीं
उसका जल चाहिये मुझे
उसमें बिहरते सपनों की टूटन
की कोई आवाज़ सुनाओ मुझे

सुबह से शाम तक
दो जून रोटी के वास्ते
जिन कायाओं ने रच रखी है
पूरी दुनिया में श्रम का संगीत
उसका नाद चाहिये, ताल चाहिये

मुझे स्वेद से लथ-पथ बेकसों की
बेकली भी चाहिये
अपनी कविता के लिये

और चाहिये गगनचुंबी इमारतों में बैठी
मजबूर उन वेश्याओं
की कराह अपनी कविता के लिये
जो इस गिरती रात के साथ, सुनो...
कितनी गहरी और घनी होती जा रही है !

अनकही बहुत सी कहनी है
अपनी कविता में मुझे
इसलिये सिर्फ़ शब्दों का इन्द्रजाल नहीं
शब्दों की तह में पैठे
अनुभव-अनुभाव चाहिये

मुझे नहीं चाहिये
दराजों में दीमक चाट रहे वे अधमरे शब्द
जिनसे मयखाने में बैठ रोज़ लिखी जा रही
जनवाद की बेहद झूठी कवितायें

कविता में तो मुझे
ज़िन्दा टटका लोक के ठेठ शब्द चाहिये
आहत आत्माओं का
अनाहत स्वर और नव लय चाहिये
* * * * *

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18 टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर कविता है...मगर दुश्मन दोस्त के लिये...?

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  2. यह कविता है
    या कवितानुमा पत्र
    या उद्गार हैं हृदय के।

    विश्‍वास है कि
    इस कविता से
    दुश्‍मनी बदलेगी दोस्‍ती में


    वैसे रहना चाहिए
    इसका भी वजूद
    तभी भाव उकरते हैं
    उकेरे जाते हैं
    कुरेदे जाते हैं।

    जो तिलमिलाते हैं
    वे कविता लिखते हैं
    और
    चुप भी रहते हैं वही
    ऐसी है यह बही
    जो लगती है सही
    और होती है सदा सही।

    राह नई है
    राह कठिन है
    पर जिसे मान रहे हो दुश्‍मन
    वही तुम्‍हारे मन का सच्‍चा दोस्‍त है
    झांक कर देख लो
    पहचान लो अपना मन।

    जवाब देंहटाएं
  3. पूरी आत्मा से लिखी गयी कविता है, बहुत खूब सुशील जी।

    जवाब देंहटाएं
  4. मुझे नहीं चाहिये
    दराजों में दीमक चाट रहे वे अधमरे शब्द
    जिनसे मयखाने में बैठ रोज़ लिखी जा रही
    जनवाद की बेहद झूठी कवितायें

    गंभीर और सशक्त।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत मार्मिक और ह्र्दय्हारिणी कविता लगी सुशील कुमार जी।

    जवाब देंहटाएं
  6. बेहतरीन और लाजबाव।-अशोक सिंह,जनमत शोध संस्थान,दुमका।

    जवाब देंहटाएं
  7. SUSHEEL KUMAAR JEE KEE KAVITA
    ACHCHHEE LAGEE HAI.UNKEE KAVITA
    PADHKAR VIKHYAAT SHAIR AKBAR
    ALLAHBADI KAA SHER YAAD AA GAYAA
    HAI MUJHE----
    MAANEE KO CHHODKAR
    JO HON NAAZUK BAYAANIYAN
    VO SHER NAHIN ,RANG
    HAI LAFZON KE KHOON KAA

    जवाब देंहटाएं
  8. waqayee ye sab cahiye kavita ke liye par kya ye sahaj hee uplabdh naheen hain ?kavta sundar hai !badhaaee!

    जवाब देंहटाएं
  9. ...... सुन्दर ... रचना के माध्यम से रचनाकारों के अंतर्मन को झिझोड़्ने के लिये एक सकारात्मक आह्वान.... आभार.

    जवाब देंहटाएं
  10. दुश्मन दोस्त हो या दोस्त दुश्मन, दिल के छालों की तपन एक सी है.

    जवाब देंहटाएं
  11. सुशील जी सबसे बडी बात है कि मैनें जो कुछ आपके विषय में विचार बनाये थे उसके विपरीत यह कविता है -

    मुझे नहीं चाहिये
    दराजों में दीमक चाट रहे वे अधमरे शब्द
    जिनसे मयखाने में बैठ रोज़ लिखी जा रही
    जनवाद की बेहद झूठी कवितायें

    ये पंक्तियाँ आपके साहस का परिचय दे रही हैं। यह सच उजागर होने से साहित्य का भला होने लगेगा।

    जवाब देंहटाएं
  12. मुझे नहीं चाहिये
    दराजों में दीमक चाट रहे वे अधमरे शब्द
    जिनसे मयखाने में बैठ रोज़ लिखी जा रही
    जनवाद की बेहद झूठी कवितायें
    ...Kuchh alag mijaj ki kavita..pasand ayi !!

    जवाब देंहटाएं
  13. सुन्दर कविता है सुशील जी,
    शब्द कोई भी हों.. कविता कमजोर या सशक्त हो सकती है झूठी नहीं :) आपकी कविता काफ़ी सशक्त है इस बार. बधाई

    जवाब देंहटाएं
  14. अनकही बहुत सी कहनी है
    अपनी कविता में मुझे
    बहुत सुन्दर कविता

    जवाब देंहटाएं
  15. अनिल कुमार जी,
    आप मेरी कविता के गंभीर पाठकों में से एक हैं।इसलिये मन हो आया कि आपसे बात करूं। मैं आप पर इस नाते उतनी ही श्रद्धा भी करता हूँ। देखिये, कविता में शब्द-यात्रायें हमेशा अनंतिम रहती हैं। जिस-जिस पड़ाव से गुज़रता हूँ, उससे जो इन्द्रिय ग्रहण करता है और मन जिस चीज़ को मथता है, उस पर हृदय जब अपना हाथ रख देता है तब मैं कविता कर डालता हूँ। अभी तो उस कविता को प्रिंट-पत्रिका में भेजा भी नहीं है,वह इतनी ताज़ा है। हाँ-
    इस दीवार से एक
    हर रोज़
    खिड़की खुलती है
    जिससे होकर एक दृश्य
    गुजरता है हरदम
    जिसकी कौंध
    जब चमकती है मन में
    तब वह कागज पर
    झड़ती है शब्द के कुछ
    अनछूये पहलुओं को लेकर
    जिससे शायद मेरी कविता
    बन जाती है।

    अनिल जी,आप अपना ईमेल आई डी मेरे ई-पते पर भेज दें ताकि आप से संपर्क कर सकूँ।धन्यवाद।
    सुशील कुमार ( sk.dumka@gmail.com)

    जवाब देंहटाएं
  16. आपकी रचनाओं का पाठक और प्रशंसक तो मैं भी हूँ...इस सशक्त रचना के लिए साधुवाद.

    जवाब देंहटाएं
  17. अब स्वाद का चट्कारा अधमरे शब्दों से हमें मिलता हैं तो रहा यही हैं आम आदमी की जिन्दगी मे।ओर यह अगर कवि छूता हैं अभिव्यक्ति मे तो अधमरे शब्द भी चेतना देते हैं ।हृदय के भीतरी भावों को सुंदर अभिव्यक्ति मिली हैं ।बधाई ।

    जवाब देंहटाएं

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