जैसाकि कहा गया कि यथार्थ का प्रदत्त रूप सृजन के लिए ज़रूरी है, पर रचनाकार सृजन के दौरान प्रतियथार्थ या प्रतिविश्व की रचना करता है, अत: उसका यथार्थ एक तरह की `पुनर्रचना´ का यथार्थ है जो उसके सोच-संवेदन से सम्पृक्त होकर आता है। जहाँ तक यथार्थ का संबंध है, वह कवि की रचनाओं में इस तरह व्यक्त होता है कि उसका द्वन्द्वात्मक रूप सम्मुख आ सके। यथार्थ के दो रूप - बाह्य तथा आन्तरिक - होते हैं, और उनका संबंध सापेक्ष-स्वायत्तता का होता है। इन्हें हम नितान्त निरपेक्ष रूप में देख नहीं सकते हैं। सुविधा की दृष्टि से मैं इस बाह्य यथार्थ के अन्तर्गत राजनीति, अर्थनीति, समाज, इतिहास तथा धर्म को लेता हूँ जिनमें इतिहास तथा धर्म यथार्थ के बाह्य तथा आन्तरिक दोनों रूपों को अक़्सर संकेतित करते हैं। कवि की रचनाओं में `राजनीति´ एक चर्चा योग्य विषय है क्योंकि कवि ने स्वतंत्रता से पूर्व राजनीतिक स्थितियों, आशयों तथा प्रक्रियाओं को न्यूनाधिक रचनात्मक संदर्भ देने का प्रयत्न किया है। इसमें जन-चेतना का आवाहन, उपनिवेशवादी शोषण, क्रांति, विद्रोह तथा यदा-कदा उन जन-आन्दोलनों का संकेत है जिन्होंने साम्राज्यवाद के विरोध में अपने संघर्ष को वाणी दी। स्वतंत्रता के बाद मोह-भंग की स्थिति, गांधी तथा नेहरू का योगदान, प्रजातंत्र की विसंगतियाँ, एशिया की जन-जागृति तथा भूमंडलीकरण और पूँजीवाद के हस्तक्षेप का रूप आदि ऐसे विषय हैं जिन्होंने कवि की सृजनात्मकता को गति दी है और इस तथ्य को सामने रखा है कि कवि राजनीति के प्रति सजग ही नहीं वरन् उसके प्रति रचनात्मक दृष्टि भी रखता है। राष्ट्र का भाग्य प्रत्यक्ष रूप से राजनीति से प्रेरित होता है, और उसकी विसंगतियाँ और संगतियाँ किसी-न-किसी रूप में छनकर समाज एवं विचार को प्रभावित करती हैं। इस दृष्टि से, कवि की रचनाओं में प्राप्त राजनीति के स्वरूप तथा उसकी प्रकृति का विवेचन अपेक्षित है।
कवि की कविताओं में उपनिवेशवादी एवं साम्राज्यवादी शोषण को `महाशक्ति´ के रूप में प्रस्तुत किया गया है, और उससे संघर्ष करने की उत्कट इच्छा, एक तरह से नवजागरण काल की वह ऊर्जा है जो सारे राष्ट्र को उत्प्रेरित कर रही थी। कवि ने `स्वयं´ की सापेक्षता में इसे अर्थ दिया है जो व्यक्तिगत न होकर सामूहिक चेतना का प्रतीक है :
आज विश्व की महाशक्ति को मुझे चुनौती दे देने दो!
मानव-पथ पर
युद्ध निरन्तर
चारों ओर मचा कोलाहल
जाता जिससे आकाश दहल
× × ×
मुझको अपने उर-साहस की, आज परीक्षा ले लेने दो!
(`चुनौती´, 'समग्र' -- खंड 1, पृ. 129)
मूलत: महाशक्ति ब्रिटिश सत्ता है जो देश के शोषण से अपनी पूँजी को लगाकर विकास कर रही है। डा. रामविलास शर्मा तथा रजनी पामदत्त ने परतंत्र भारत तथा अन्य उपनिवेशों से प्राप्त `कच्चे माल´ को वह आधार माना है जिससे औद्योगिक क्रांति सफल हुई। यह पूँजी की लगातार वृद्धि ही थी जिसने उपनिवेशवादी शोषण से सामना करने के लिए `महाप्रलय´ का गर्जन तथा `पूँजी की ज़ंजीरों´ के क्रमिक विखंडन की कामना की है जो आगे चलकर सत्य साबित हुई :
फिर महाप्रलय के गर्जन से वसुधा का अंतर कंपित हो,
पूँजी की ज़ंजीरों में बँध अब और न जनता शोषित हो,
समता की दृढ़ तलवारों से वैभव पर बंद प्रहार न हों!
बंधन से तुमको प्यार न हो!
(`बंधन-मुक्त´, खंड 1, पृ. 171)
यह क्रांति का स्वर कवि की अनेक कविताओं में प्राप्त होता है जो परतंत्रता की बेड़ियों से राष्ट्र को मुक्त कर सकता है, और इसके लिए कवि बार-बार नौजवानों तथा जनता का आवाहन करता है। एक स्थान पर वह स्पष्ट कहता है कि यदि देश जागा नहीं, तो साम्राज्यवादी शोषण और लूट का भयंकर नृत्य होगा :
बुझ गया यदि देश-दीपक /
तो अँधेरा क्या /
मरण अभिशाप होगा /
लूट का आरम्भ होगा /
घोर शोषण की कहानी का /
प्रथम वह पृष्ठ होगा !
(`देश-दीपक´, खंड 1, पृ. 185)
कवि ने मुख्य रूप से विद्रोह और क्रांति के इस स्वर को देश की दो घटनाओं से जीवन्त बनाया है - एक 1942 की जन-क्रांति जो बलिया में घटित हुई जिसे कवि ने क्रांति का `जन-गढ़´ कहा है जिसने `गोरी सत्ता´ का सामना किया, उसके `मुख´ पर `साम्राज्यवाद का ताला´ कभी नहीं पड़ सकेगा और जन-रक्त से स्वतंत्रता की नयी कोंपल फूटेगी :
हिमगिरि उच्च-शिखर-सा वसुधा
पर अविचल आज़ाद खड़ा,
पशु-बल की गोरी सत्ता से
क़दम-क़दम पर अड़ा-लड़ा
मानवता का जीवित प्रतीक
आज़ादी हित मतवाला,
पड़ न सकेगा इसके मुख पर
साम्राज्यवाद का ताला!
× × ×
खेतों-खलिहानों में गिरता है
जो शव-रक्त तुम्हारा
उससे फूटेगा आज़ादी का
नूतन का--पल प्यारा!
(`बलिया´, खंड 1, पृ. 185-186)
दूसरी घटना है 1946 का `नौसैनिक विद्रोह´ जिसके बारे में कम लोग ही जानते हैं। इस विषय पर मुझे `साम्य´ के अंक के लिए आलेख भेजना था, मैंने भारत सरकार द्वारा प्रस्तुत स्वतंत्रता-संग्राम पुस्तक को देखा, उसमें इस विद्रोह पर कोई भी चर्चा नहीं थी जो यह तथ्य प्रकट करती है कि कांग्रेस सरकार इस महत्त्वपूर्ण क्रांति को स्वतंत्रता-संग्राम में कोई महत्त्व नहीं देती है और साथ ही, पूरे क्रांतिकारी आन्दोलन को पृष्ठभूमि में डाल देती है जबकि सत्य यह है कि क्रांतिकारियों ने अपने बलिदान तथा यातना-सहन के द्वारा `स्वतंत्रता´ के इस यज्ञ में अपने को पूरी तरह `होम´ कर दिया।
महेंद्रभटनागर ने स्वतंत्रता-संग्राम के नौसैनिक विद्रोह को महत्त्व दिया है जबकि बहुत ही कम कवियों ने इस विद्रोह को अपनी रचनात्मकता का माध्यम बनाया है। इनमें शमशेर, शिवमंगलसिंह `सुमन´, केदारनाथ अग्रवाल की अवधी में 31 पृष्ठों की लम्बी कविता `बम्बई का रक्त-स्नान´ तथा साहिर लुधियानवी की नज़्म ऐसी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं जिन्हें इतिहास के पृष्ठों से निकाला नहीं जा सकता है और महेंद्रभटनागर की कविता `नौसैनिक विद्रोह´ का महत्त्व इसलिए भी है कि कम रचनाकारों की सूची में महेंद्र जी का नाम जुड़ जाने से इस विद्रोह का औचित्य और महत्त्व और भी `मुक्ति-संघर्ष´ को व्यापक परिप्रेक्ष्य देता है। महेंद्र जी की यह कविता छंदोबद्ध है और लय का प्रवाह इस प्रकार का है कि यह कविता, उपर्युक्त कवियों की जन-चेतना को जन-भाषा में अर्थ देती है :
जब बंगाल की खाड़ी, अरब सागर हिले-डोले
सदियों के दमित सीने नया दृढ़ जोश पा बोले --
लेंगे छीन आज़ादी कि हममें शक्ति है इतनी,
लो प्रतिशोध युग-युग का कि ज़ुल्मों की कथा कितनी!
नौसैनिक चले मिलकर जहाज़ों को उड़ाने को,
भीषण गोलियाँ बरसीं गुलामी को मिटाने को! ....
जन-जन मुक्ति आन्दोलन मशालें जल उठीं अगणित
पशु-बल जा छिपा उल्लू सरीखा बन भयातंकित!
यह विद्रोह बम्बई, मद्रास इलाहाबाद, करांची आदि नगरों में आग की तरह भीषण रूप में फैला, और इस विद्रोह में मुस्लिम लीग, कांग्रेस और कम्यूनिस्ट पार्टी के झंडे एक साथ दिखायी दिये - जनता और सैनिक एक साथ इस क्रांति में भागीदार हुए। कांग्रेस आदि पार्टियों ने तथा नेहरू, पटेल, गांधी आदि नेताओं ने इस विद्रोह का साथ नहीं दिया, नहीं तो स्वतंत्रता का शायद वह रूप नहीं होता जो सत्ता हस्तान्तरण के कारण हुआ। महेंद्र जी की उपर्युक्त पंक्तियाँ संक्षेप में नौसैनिक विद्रोह के स्वरूप तथा उसके भीषण रूप को व्यक्त करती हैं, पर शमशेर तथा साहिर की निम्नांकित पंक्तियाँ इसका खुलासा इस प्रकार करती हैं :
बम्बई की जनता के दाँत /
बिफर उठे हैं एक साथ /
सभी वर्ग और जातियों के क्रोध भरे /
सीने।
( शमशेर की कविता `जहाज़ियों की क्रांति´)
दूसरी ओर साहिर की ये पंक्तियाँ जहाँ एक ओर साम्राज्यवादियों के निज़ाम को कंपित कर देती हैं, वहीं दूसरी ओर 1857 की राज्यक्रांति की याद दिलाती हैं जब सैनिक और जनता ने एक साथ मिलकर बग़ावत की आग को प्रज्वलित किया :
कौन सा ज़ज़्बा था जिसने फर्सूदा-निज़ामें-जीस्त हिला
झुलसे हुए वीरां गुलशन में इक आस-उम्मीद का फूल खिला
जनता का लहू फौज़ों से मिला, फौज़ों का लहू जनता से मिला।
इसकी प्रतिध्वनि एक दूसरे रूप में महेंद्रभटनागर की इन पंक्तियों में व्यक्त होती है :
धक्का शक्तिशाली जब लगा जन-तंत्र का नारा,
सागर पार सिंहासन गया हिल राज्य का सारा!
सड़कों पर पड़े अगणित क़दम फौलाद से दुर्दम
जाग्रत देश के जन-जन अथक लड़ते रहे हरदम! ....
यह साम्राज्यवादी गढ़ विकल हो बौखलाया था
जिसने शक्ति का कण-कण कुचलने में लगाया था!
(`नौ-सैनिक विद्रोह´, खंड 1 पृ. 230-231)
1946 के `हरिजन´ में (अप्रैल अंक) गांधी जी ने विद्रोह की भर्तस्ना इस प्रकार की - `` यदि ऊपर से नीचे तक एकताबद्ध होते, तो बात मेरी समझ में आती। तब इसका अर्थ यह होता कि भारत को निष्कृष्ट अव्यवस्थित लोगों के हाथ सौंप दिया जाए। मैं इस काम का अंजाम देखने के लिए 125 वर्ष जीना नहीं चाहता।´´
शमशेर ने अपनी कविता में इन नेताओं की `भूमिका´ पर व्यंग्य करते हुए सही स्थिति का संकेत किया है जो महेंद्र जी की कविता में कहीं भी नहीं है :
आए! नेतागण आए
शांत किया सागर को
शांति के छीटे बरसाए
जनता ने दाँत भींच लिए
और चुप हो रही!
जय हो! नेताओं की।
नाविक विद्रोह तथा 1944-1946 के बीच में जन-आन्दोलनों का व्यापक उभार डा. रामविलास शर्मा के बतौर यह कहा जा सकता है कि अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद की जड़ें इन विद्रोहों के द्वारा हिल अवश्य गयी थीं जिसे महेंद्र जी की यह पंक्ति प्रमाणित करती है `कि साम्राज्यवादी गढ़ विकल हो बौखलाया था´। विश्व का इतिहास यह बताता है कि विद्रेह ही क्रमश: व्यापक जनाधार पाकर `क्रांति´ का रूप ले लेता है पर इसका यह अर्थ नहीं कि इन विद्रोहों का कोई ऐतिहासिक महत्त्व नहीं है। इन्हीं ने `लपकती अग्नि-लीक´ का सृजन किया जो सत्ता पक्ष को बौखला दे या हिला दे। अंति में, मैं केदारनाथ अग्रवाल की अवधी कविता की अंतिम पंक्तियाँ देना चाहूंगा जो नौ सैनिक विद्रोह के प्रति श्रद्धांजलि भी है और इस विद्रोह का ऐतिहासिक महत्त्व भी :
माथा नायब, आसु बहायव, सुमिरन सबका वीर बरवान।
नौसैनिक के औ´ जनता कै करना का कीन्हैव अभिमान।।
अंत में साथिव! एक कंठ सौ चालीस कोटि करौ गुंजार।
जै नौसैनिक ! जै जनता जै, जै भारत भूमि हमार।।
कवि इस संघर्ष को मात्र भारत तक सीमित नहीं रखता है, पर वह साम्राज्यवाद के शिकंजे को एशिया के देशों में शिथिल होता हुआ पाता है, और इस पूरे परिदृश्य में वह `जनता तथा साम्य के संगीत´ को गूँजता हुआ पाता है। कवि की यह दृष्टि कल्पना नहीं है, पर वह एक ऐतिहासिक यथार्थ है जिसे कवि अनेक कविताओंस में अर्थ देता है, उदाहरणस्वरूप :
पर, ललकार -
इंडोनेशिया छोड़ो,
भगो, बर्मा व हिंदुस्तान छोड़ो!
एशिया क्या
विश्व के लघु राष्ट्र सारे
एक बिगड़े सिंह जैसे जग उठे हैं,
एक घायल साँप जैसे फन उठाए दीखते हैं!
अंत है फ़ासिज़्म का
और नष्ट होने जा रही हैं
विश्व की साम्राज्यवादी शक्तियाँ!
(`कुर्बानियाँ´, खंड 1, पृ. 221-222)
स्वतंत्रता-प्राप्ति के समय तथा उसके बाद के कुछ वर्षों की रचनाएँ जहाँ एक ओर भिन्न रूपाकारों द्वारा नये सूरज तथा `नये विहान´ का स्वागत करती हैं, वहीं दूसरी ओर, कवि का मोहभंग होता है क्योंकि स्वतंत्रता के पूर्व उसकी जो आशाएँ तथा इच्छाएँ थीं, जनता तथा क्रांतिकारियों ने जो स्वप्न देखा था, वह सारा बलिदान और स्वप्न व्यर्थ ही गया, और जो हमें स्वतंत्रता प्राप्त हुई, वह सत्ता-हस्तान्तरण (ट्रांसफर ऑफ़ पॉवर) के द्वारा प्राप्त हुई जिसमें विदेशी पूँजी का भी हस्तान्तरण हुआ तथा उन सारी व्यवस्थाओं (यथा - प्रशासन, न्याय, शिक्षा, भाषा आदि ) का भी हस्तान्तरण हुआ। जिसे अंग्रेज़ी शासन ने अपनी आवश्यकता के अनुसार, इस देश में स्थापित या कार्यान्वित किया। इसी `सत्ता-हस्तान्तरण´ के तहत देश का धर्माधारित विभाजन हुआ जिसे हम आज तक भुगत रहे हैं। मुझे अत्यंत आश्चर्य उस समय हुआ जब शहीद भगतसिंह ने अपनी `शहादत´ से पूर्व युवा क्रांतिकारियों को यह संदेश दिया कि ``क्रांति का अर्थ यह नहीं है कि सत्ता-हस्तान्तरण श्वेत शासकों के स्थान पर भारतीय सत्ताधारियों के हाथ में चली जाए। इससे किसानों, मज़दूरों तथा जनता को क्या फ़र्क पड़ेगा यदि लार्ड रीडिंग के स्थान पर पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास भारत के वायसराय हो जाएँ। एक जाग्रत जन-समूह के अभाव में यह भय सदा बना रहेगा कि अंग्रेज़ पिट्ठू भारतीय शासक उसी प्रकार मनमानेपन और अत्याचार के शिकार हो जाएँ जैसेकि श्वेत सत्ताधारी रहे हैं।´´ (सलेक्टेड राइटिंग्स ऑफ़ भगतसिंह, संपादक श्री शिव शर्मा की भूमिका से)
स्वतंत्रता प्राप्त होने पर कवि `जीर्ण पुरातन ध्वस्त करो´, `सर्वहारा की जय´, `शांति का झंडा ज़रा झुकने नहीं देंगे´, तथा समाज की विरोधी शक्तियों को चुनौती देकर आगे बढ़ेंगे - ये सभी आशाएँ तथा आकांक्षाएँ जो कवि को बार-बार `हॉण्ट´ करती हैं, ये सब क्रमश: `मोहभंग´ की भिन्न स्थितियों में व्यक्त होती हैं। कवि स्पष्ट रूप से, स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद देश की जो त्रासदीय स्थितियाँ सामने आती हैं, उनकी सापेक्षता में वह यह कह उठता है :
मुझे आज़ादी बेहद प्यारी है
मैंने अपने हाथों से
इसकी सींची फुलवारी है!
पर, सावधान लोभी गिद्धो!
यदि तुमने इसके फल-फूलों पर
अपनी दृष्टि गड़ाई
तो फिर करनी होगी
आज़ादी की फिर से और लड़ाई!
(`आज़ादी का त्योहार´, खंड 2, पृ. 132)
कवि श्रमिकों की दुनिया का गायक है, वह स्वतंत्रता के बाद श्रमिकों को इतिहास के पृष्ठ पर एक नये उभार के रूप में देखता है। उसका विश्वास है :
श्रमिकों की दुनिया बहुत बड़ी -
सागर की लहरों से लेकर अम्बर तक फैली,
इनका अपना कोई देश नहीं,
काला, पीला, गोरा भेष नहीं,
सारी दुनिया के श्रमिकों का जीवन
सारी दुनिया के श्रमिकों की धड़कन
कोई अलग नहीं!
कर सकतीं भौगोलिक सीमाएँ तक
इनको विलग नहीं!
(`श्रमिक खंड 2, पृ. 323-324)
1956 में राजनीति के क्षेत्र में शीत युद्ध का जो प्रभाव अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच पर चल रहा था, उसका एक सम्यक् चित्रण कवि इस प्रकार करता है :
शीत युद्ध से समस्त विश्व त्रस्त
हो रहा मनुष्य भय विमोह ग्रस्त!
डगमगा रही निरीह नीति-नाव
जल अथाह, नष्ट पाल-बंधु-भाव
राष्ट्र-द्वेष की भरे अशेष दाह
मित्रता प्रसार की निबद्ध राह!
मच रही अजीब अंध शस्त्र-होड़
पशु बना मनुज, विचार-शक्ति छोड़!
जन-विनाश चक्र चल रहा दुरन्त
आज साधु-सभ्यता विहान अंत!
गूँजते चतुर्दिशा कठोर बोल
रम्य-शांति-राग का रहा न मोल!
एकता-सितार तार छिन्न-भिन्न!
हर दिशा उदास मूक खिन्न-खिन्न!
अस्त सूर्य, प्राण-वेदना अपार
अंधकार, अंधकार, अंधकार!
(`अंधकार´, खंड 2, पृ. 414)
कवि का मोह-भंग एक राजनीतिक घटना को लेकर होता है जो चीन और भारत के (1956) उस संबंध की ओर संकेत करता है जो पंचशील नाम से चीन-भारत मित्रता का एक दस्तावेज़ माना गया था। कवि इस पंचशील को `पंच शर्तों की शिला´ कहता है, पर यह शिला विदीर्ण हो जाती है। उनकी महत्त्वपूर्ण कविता `माओ और चाऊ के नाम´ जिसमें मोह-भंग का यह त्रासदीय एवं व्यंग्यात्मक रूप यदा-कदा अभिव्यक्ति प्राप्त करता है :
नये इंसान के प्रतिरूप में
हमने तुम्हारा
बंधु-सम स्वागत किया था
क्या इसलिए?
कि तुम --
अचानक क्रूर बर्बर आक्रमण कर
हेय आदिम हिंस्र पशुता का प्रदर्शन कर
हमारी भूमि पर
निर्लज्ज इरादों से
गलित साम्राज्यवादी भावना से
इस तरह अधिकार कर लोगे?
युग-युग पुरानी मित्रता को भूल
कटु विश्वासघाती बन
मनुजता का हृदय से अंत कर दोगे!
(`माओ और चाऊ के नाम´, खंड2,पृ.422)
यह घटना मात्र भारत-चीन के त्रासदीय संबंध को ही व्यक्त नहीं करती है, पर यह साम्यवादी लोक के प्रति एक वितृष्णा के भाव को सापेक्ष स्थिति के प्रकाश में संकेतित करती है, इसे कवि महसूस करता है, तभी वह ग्लानि से भर उठता है :
साम्यवादी वेश धर
सम्पूर्ण दक्षिण एशिया पर स्वत्व चाहोगे?
इतिहास को --
तुमसे कभी ऐसी अपेक्षा थी नहीं
ऐसा करुण साहाय्य तुम दोगे उसे!
नव साम्यवादी लोक को --
तुमसे कभी ऐसी अपेक्षा थी नहीं
ऐसा दुखद अध्याय तुम दोगे उसे!
(वही, खंड 2, पृ. 423)
मेरे विचार से नेहरू-युग की यह एक राजनीतिक- सांस्कृतिक दुर्घटना ही थी। भारतीय इतिहास में आदर्शवाद को इस सीमा तक ले जाया गया कि `यथार्थवाद´ की कटु स्थिति को देखा नहीं गया। किसी भी देश की राजनीति आदर्शवाद को उसी हद तक स्वीकार करती है जो उसके अस्तित्व और अस्मिता के अनुकूल हो। नेहरू और गांधी के प्रति कवि का दृष्टिकोण सकारात्मक है जो उसकी कविता `नहीं तो´ से स्पष्ट है क्योंकि कवि का मानना है :
यदि मेरे देश में
गांधी और नेहरू जैसों ने
जन्म नहीं लिया होता
तो, हैवानियत के शिकंजे
हमारे हाथों-पाँवों में कसे होते!
यहाँ-वहाँ - सभी जगह
मौत के सौदागर बसे होते! ....
घुटनों-घुटनों फिरकापरस्ती की दलदल में
धँसे होते,
हम सब बदरंग हो गये होते,
दिलों से बेहद तंग हो गये होते!
हमारे एकता के स्वप्न सारे टूटते,
पशुबल समर्थक समृद्धि सारी लूटते!
(`नहीं तो´, खंड 3, पृ.139-140)
यह कविता कवि ने 1970 में लिखी जो गांधी और नेहरू के योगदान को संकेतित करती है। परन्तु इतिहास की प्रक्रिया में नेहरू-युग ने तीन ऐसे-ऐसे निर्णय लिए जिन्हें देश अभी-तक किसी-न-किसी रूप में भुगत रहा है। एक -- सत्ता-हस्तान्तरण के द्वारा देश का विभाजन, दूसरे काश्मीर की समस्या तथा तीसरे एक विदेशी भाषा अंग्रेज़ी को ग़लत तरीके से स्थान देना। गांधी जी ने देश-विभाजन का विरोध किया था और कहा था कि मेरे `शव´ पर ही पाकिस्तान बनेगा, पर हुआ इसके विपरीत। गांधी जी ने उस समय अनशन क्यों नहीं किया जो उन्होंने बाद में हिन्दू-मुस्लिम दंगों को रोकने के लिए किया। इसके पीछे गांधी जी का वह झुकाव तो नहीं था जो नेहरू के प्रति सदा रहा है? कांग्रेस का सत्ता में आना और नेहरू का प्रधानमंत्री पद पर आना -- ये घटनाएँ यह सिद्ध करती हैं कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के पूर्व का सारा `स्वप्न´ बुरी तरह विखंडित हो गया, यहाँ तक कि गांधी और नेहरू का सारा प्रयत्न, बलिदान तथा संघर्ष बेमानी होता गया। कवि ने गांधी जी के इस अवमूल्यन पर करारा व्यंग्य किया है जो एक कटु सत्य है जिसे कवि ने परोक्ष रूप से महसूस किया है :
मोटे-मोटे खादीपोश
बदकिरदार व्यापारियों-पूँजीपतियों
मकान-मालिकों, कॉलोनीधारियों, वकील नेताओं के
मुँह में / यथापूर्व
विराजमान है - गांधी
बँगलों और कोठियों में
दीवारों पर टँगे हैं गांधी
(या सलीब पर लटके हैं गांधी)
तिकड़मी मस्तिष्क के बद-मिज़ाज
नये भारत के ये भाग्य-विधाता
`एम्बेसडर´ में
धूल उड़ाते / मज़लूमों पर थूकते
मानवता को रौंदते
अलमस्त घूमते हैं।
किंचित सुविधाओं के इच्छुक
उनके चरण चूमते हैं!
मेरी पूरी पीढ़ी हैरान है!
नेतृत्व कितना बेईमान है!
(`हमारे इर्द-गिर्द´, खंड 3, पृ. 143-144)
आज देश में जो प्रजातंत्र का रूप है, वह `डेमोक्रेसी´ न होकर `डेमनक्रेसी´ है। एक नेता ने तो यहाँ तक कहा कि प्रजातंत्र हमारे लिए वरदान है क्योंकि इसके द्वारा हम अपनी तिजोरियाँ भर रहे हैं :
जिसका उपद्रव-मूल्य है
वह पूज्य है! ...
जो जितना मुखर और लट्ठ है
जो जितना कडुआ मुखर
और जितना निपट लट्ठ है
उसके पीछे-आगे / दाएँ-बाएँ ठट्ठ हैं!
उतने ही भारी भड़कीले ठट्ठ हैं!
उसका गौरव / अनिर्वचनीय है,
उसके बारे में और क्या कथनीय है!
(`प्रजातंत्र´, खंड 3, पृ. 223-224)
देश की इस `आहत´ और `मर्माहत´ स्थिति को कवि अनेक कविताओं में भिन्न रूपाकारों के द्वारा संकेतित करता है और देश एक गहरी साज़िश की गिरफ़्त में है - इस तथ्य को प्रकट करता है। आतंकवाद, सम्प्रदायवाद, धर्मान्धता तथा ग़रीबी का बढ़ता दैत्य आदि ऐसे तत्त्व हैं जिनसे देश की राजनीति, अर्थनीति तथा संस्कृति के रूप लगातार विकृत हो रहे हैं। इस सारे परिदृश्य को कवि अपनी रचनात्मकता का माध्यम बनाता है जो उसके `कन्सर्न´ को संकेतित करता है और अंत में कह उठता है :
हम
आहत युग की पीड़ा सह कर
इतिहासों का मलबा ढोएंगे!
(`त्रासदी´, खंड 3, पृ. 315)
उपर्युक्त देश की राजनीतिक-सामाजिक त्रासदी और विसंगति के प्रकाश में कवि दिशाहीनता की स्थिति को महसूस करता है जो आज सर्वत्र भारतीय समाज में व्याप्त हो रही है। कवि इस दिशाहीनता को इस प्रकार व्यक्त करता है :
चल रहे हैं लोग
सिर्फ़ पीछे भीड़ के!
जाना कहाँ
नहीं मालूम,
हैं बेख़बर
निपट महरूम
घूमते या इर्द-
गिर्द अपने नीड़ के!
छाया इधर-
उधर जो शोर,
आया कहीं न
आदमखोर?
सरसराहट आज
जंगलों में चीड़ के!
(`लोग´, खंड 3, पृ. 317-318)
आज भूमंडलीकरण के प्रकोप के कारण, उपभोक्तावाद तथा विज्ञापन-संचार माध्यम आदि के द्वारा जो धन और ग्लैमर का अति विकास हो रहा है, इनके प्रति भी कवि अपनी नवीनतम काव्य-कृति `मृत्यु-बोध : जीवन-बोध´ में पूँजी और धन के अस्तित्व को संकेतित करता हुआ `जीवन´ की जो अर्थवत्ता है, उसकी नेमत है, उसे मानव क्रमश: `धो´ बैठेगा :
उच्छृंखल और महत्त्वाकांक्षी मानव
धन के पीछे भाग रहा है
सुख के पीछे भाग रहा है ....
अंधा, संभ्रम, अज्ञानी मानव
धन ही वर्चस्व समझ रहा है,
सुख को सर्वस्व समझ रहा है,
बहुमूल्य मिला जो जीवन / धो बैठेगा,
जीवन की नेमत / खो बैठेगा!
(`मृत्यु-बोध : जीवन-बोध´ / `मृग-तृषा´, पृ.45)े
आज अधिकतर देशों में आतंकवाद अपने भिन्न-भिन्न रूपों में अपने भयावह डैने फैलाता जा रहा है जिसकी गिरफ़्त में विकसित और अविकसित देश क्रमश: आते जा रहे हैं। इस स्थिति को कवि `मानव-बम´ के द्वारा संकेतित करता है (यद्यपि यहाँ प्रसंग `मरण´ का है, पर इसका सूत्र वर्तमान से सम्बद्ध है) :
तन के भीतर घुसकर घात लगाता है,
अपने को अविजित यम का दूत बताता है,
तन के भीतर विस्फोटक बारूद बिछाता है,
और ... अदृश्य स्थानों से छिप-छिप कर
दूरस्थ-नियिन्त्रत-यंत्र चलाता है!
देखें, अब और किधर से आता है!
(`मृत्यु-बोध : जीवन-बोध´ / `दह्तअंगेज़´, पृ. 67-68)
उपर्युक्त सारा घटनाचक्र, जो त्रासद है, उसे हमने कब चाहा, पर परिस्थितियाँ और विदेशी पूँजी के वर्चस्व के कारण यह एक यथार्थ भी है जिससे मानव को जूझना होगा और यह भी सत्य है कि सामने जो त्रासद घटनाएँ घट रही हैं, वे भी क्रमश: भूलुंठित होंगी क्योंकि इतिहास का यह एक क्रम है कि जब कोई स्थिति अपनी `अति´ पर पहुँचती है, तो उसमें विसंगतियाँ और अन्तर्विरोध उत्पन्न होते हैं जो क्रमश: उस `व्यवस्था´ को विखंडित करते हैं -- यह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। कवि इस विखंडन-भूलुंठन की प्रक्रिया को प्रत्यक्ष रूप से देख रहा है :
पर, अनचहा सब सामने घटता गया,
हम देखते केवल रहे,
सब सामने क्रमश:
उजड़ता, टूटता, हटता गया!
(`घटनाचक्र´, खंड 3, पृ. 332)
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1- यह सारा विवरण डा. रामविलास शर्मा की पुस्तक `भारत में अंग्रेज़ी राज और मार्क्सवाद´, पृ. 410-414 तथा मेरा लेख `नाविक-विद्रोह -- एक असफल क्रांति´ `साम्य´ पत्रिका के विशेषांक `अधूरी क्रांति´ में प्रकाशित।
5 टिप्पणियाँ
विस्तृत एवं शोधपरक आलेख।
जवाब देंहटाएंमहेन्द्र भटनागर जी का काव्य गहरे शोध का विषय है। इनकी रचनाओं में गह्रे उतर कर सागर का पता चलता है।
जवाब देंहटाएंSundar vishleshan...Rochak prastuti.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आलेख, बधाई।
जवाब देंहटाएंसुंदर और शोधपरक प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.