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महेंद्र भीष्म के कथा साहित्य में करुणा [समीक्षा] – डॉ. गुणशेखर


महेंद्र भीष्म एक जाना पहचाना नाम है। मैं इन्हें तब से जानता हूँ जब वह 'तेरह करवटें' से चर्चा में आ गए (नए-नए कथाकार होकर भी) थे। उसके बाद से निरंतर आगे बढ़ते गए, लेकिन इन्होंने अपने रचना संसार में जो धमाका किया है वह 'किन्नर कथा' के नाम से जाना जाता है। यह उपन्यास क्वांगतोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय के चतुर्थ वर्ष के शोध पत्र लेखन के लिए स्वीकृत ही नहीं विद्यार्थियों की एक प्रिय पुस्तक भी रहा है, जिसे पाठ्यक्रम में रखने का श्रेय भीष्म जी मुझे देते हैं और मैं उस कृति को जिसमें तीसरी दुनिया की तरह हर दुनिया में उपेक्षित थर्ड जेंडर को बड़ी गंभीरता से स्पेस दिया गया है।
प्राय: चर्चाओं में सुनने में आता है कि ईश्वर ने मानव समुदाय में केवल दो ही जातियां बनाई हैं स्त्री और पुरुष। लेकिन ऐसी चर्चाओं में तीसरी जाति को सिरे से ही उड़ा दिया जाता है। यह तीसरी जाति है मंगलमुखी (किन्नर)समुदाय की जिसको हमारे समाज में कभी महत्व ही नहीं दिया गया। बल्कि सच कहें तो उसे बराबर अपमानित किया गया। सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में आने के बाद ट्रांसजेंडर को मिला चुनाव का अधिकार इस समुदाय के जीवन के लिए एक क्रांतिकारी घटना है। साहित्य सिनेमा और समाज तीनों में किन्नर समुदाय हमेशा उपहास का पात्र बनाया जाता रहा है। सभी को हंसाने, खिलखिलाने गुदगुदाने और बधाइयां देने वाला यह समुदाय कभी भी आदर और सम्मान नहीं पाता यह हमारे समाज की सबसे बड़ी विडंबना है। महेंद्र भीष्म एक ऐसे संवेदनशील कथाकार हैं जिन्होंने किन्नर समुदाय के जीवन की पीड़ा उससे गहरे जुड़कर व्यक्त की।उनकी पीड़ा को महसूस किया और उन्हें एक नहीं दो-दो उपन्यासों में बड़ी गरिमा और गहरी संवेदना के साथ चित्रित किया। उनके जीवन के दुख दर्द को जितनी गंभीरता से महेंद्र भीष्म लेते हैं उससे यह प्रतीत होता है कि वह केवल किन्नर को लेखन तक ही सीमित नहीं करना चाहते बल्कि वह समाज में उन्हें वह खोया हुआ स्थान दिलाना चाहते हैं जिससे कि वह अपनी प्रतिष्ठा को प्राप्त कर सकें और सम्मानजनक जीवन जी सकें। लिंग भेद से ऊपर उठकर वह एक मनुष्य की तरह अपना जीवन यापन कर सकें।
महेंद्र भीष्म कहते हैं, "उनके प्रति हमारी सोच में अश्लीलता का चश्मा क्यों चढ़ा रहता है। किसी हत्यारोपी के साथ बेहिचक घूमने टहलने या उसे अपने ड्राइंग रुम में बैठाकर उसके साथ जलपान करने से हम नहीं हिचकते हैं पर किन्नर तो ऐसा कोई काम नहीं करता जो कि एक हत्यारोपी करता है तो हम किन्नरों से क्यों हिचकते हैं! आखिर क्यों? वह कहते हैं कि किन्नर कभी किसी को शाप नहीं देते। वह केवल और केवल आशीष देना जानते हैं। दूसरों के सुख से खुश होकर नाचते गाते बजाते हैं और एकांत में ईश्वर से अपना कसूर पूछते हुए कहते हैं हे ईश्वर हमें किन्नर क्यों बनाया? हमारा संविधान हमारे हर नागरिक को लिंग और जातिभेद से ऊपर उठकर जीने की मान्यता देता है। सबको बराबर समझता है। क्षमता और समरसता के जीवन को प्राथमिकता देता है तो फिर हमारा समाज किन्नर समुदाय को उपेक्षा के नजरिए से क्यों देखता है।किन्नरों को केवल यौनकर्मी के रूप में देखा जाता है यह उनके साथ एक प्रकार का अन्याय हैं। इन्हें शिक्षा की सुविधाएं नहीं मिलतीं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इन्हें वोट देने का अधिकार प्रदान कर दिया गया है। इतना ही नहीं अब इन्हें पिछड़े वर्ग में भी रखा जाएगा जिसके कारण इन्हें नौकरी में जाने में भी सुविधा होगी। लेकिन इसके लिए सबसे पहले और ज़रूरी बात यह है कि समाज की विचारधारा को बदला जाए। इनके प्रति रूढ़ सामाजिक सोच को बदला जाए और जब किसी के यहां इस तरह के बच्चों का जन्म होता है तो उन्हें दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में न पाला जाए। उन्हें बराबर शिक्षा दी जाए और नौकरियों में जाने के लिए भी उनके मार्ग प्रशस्त किए जाएं। केवल सरकारी सुविधाओं के बढ़ने से ही किन्नर समुदाय के सामाजिक जीवन में कोई खास परिवर्तन आने वाला नहीं है। इसके लिए सबसे जरूरी पहल होगी सामाजिक सोच में बदलाव की।
महेंद्र भीष्म के लेखन में इस समुदाय के प्रति सामाजिक सरोकार बड़ी गंभीरता से आए हैं।आज के निचले तबके से लेकर इस समुदाय के दर्द को जिस गंभीरता से महेंद्र भीष्म ने अपने साहित्य में स्थान दिया है। वह लेखक के गंभीर और संवेदनशील होने का सबसे बड़ा प्रमाण है।आपके पाँच के पांचों कहानी संग्रहों में यह मानवीय सरोकार विद्यमान है।इनके उपन्यासों में किन्नर कथा, तीसरा कंबल और मैं पायल उल्लेख्य हैं जिन सभी में मानवीय सरोकार महेंद्र भीष्म को उच्च और उदात्त लेखक बनाते हैं।बुंदेलखंड के कुलपहाड़ में जन्मे महेंद्र भीष्म साहित्य में आई संवेदना उनकी परवरिश का परिणाम भी कही जा सकती है। इनके माता-पिता की उदारता इन्हें बचपन से ही उन मानवीय सरोकारों की ओर खींचती रही है जिनके बिना यह समाज निष्प्रभ और निष्प्राण रहता है।
वरिष्ठ साहित्यकार भारतेंदु मिश्र इस समुदाय के प्रति हिंदी साहित्य में करुणा के प्रथम सजल बिन्दु बल्भद्र प्रसाद दीक्षित के कथासाहित्य में खोज लेते हैं। उनकी वह कथा पहली किन्नर कथा कही जा सकती है। डॉ भारतेंदु मिश्र लिखते हैं-" आदरणीया चित्रा मुद्गल जी का बहुत चर्चित उपन्यास " नाला सोपारा" भी किन्नर कथा का महत्वपूर्ण पड़ाव है।महेंद्र भीष्म जी काम कर रहे हैं। पायल,गीतिका वेदिका,जैसे लोग भी इस दिशा में संलग्न हैं।लगातार गंभीर शोधकर्ताओं ने भी इस दिशा में सक्रियता बना ली है। और भी लोगों ने काम किया होगा मैं सबको नहीं जानता । इस दिशा में और काम होना चाहिए,ये बहुत तेजी से हो भी रहा है होना भी चाहिए।बस मुझे लगता है कि हिंदी का शोध और शोधार्थी अब वैसे गंभीर नहीं रहे।
हिंदी की पहली किन्नर कथा 1939 में अमृतलाल नागर जी द्वारा संपादित "चकल्लस" साप्ताहिक में प्रकाशित हो चुकी है जिसका शीर्षक है--"चमेली जान" लेखक हैं बलभद्र प्रसाद दीक्षित "पढ़ीस" तो शोधकर्ताओं ने यदि पढीस जी को ठीक से पढ़ा होता,तो ऐसे भ्रम न होते। "पढ़ीस रचनावली" (1986) संपादक रामविलास शर्मा को पढ़ लिया होता तो भी ये नया संदर्भ जुड़ जाता। लेकिन ज्यादातर हिंदी के प्रोफेसर रामविलास जी को ही गंभीरता से नहीं लेते वो भी एक समस्या हैअथवा अभी पढीस जी पर 2017में मेरी पुस्तक साहित्य अकादमी से आई बहुत लोगों ने बधाई भी दी लेकिन उसमें संकलित "चमेली जान" की प्राचीनता पर गौर नहीं किया।"
भारतेंदु जी की बात सही है कि पढीश के बाद लंबे समय तक यह विषय उपेक्षित रहा। आज भारतीय समाज में तीसरे लैंगिक समूह को मान्यता मिलना एक महत्वपूर्ण परिघटना है।इसमें कथाकार महेंद्र भीष्म ने 'किन्नर कथा' और 'मैं पायल'से मंगलमुखी समाज के लिए जो महत्त्व पूर्ण भूमिका निभाई है,वह कथा साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखेगी। इन्होंने किन्नर समाज के दर्द को समझा है उसके प्रति इनकी सघन संवेदना ने दो-दो उपन्यासों के सृजन में महती भूमिका निभाई है। इन्होंने मंगलमुखी (किन्नर) समाज के उत्थान के लिए हर संभव प्रयास किया है।इनके उत्थान में और सम्मान की वृद्धि में अगर कोई मिथक भी सहायक हो तो उसके उपयोग में भी इनको कोई गुरेज नहीं है। इन्होंने सदियों से चले आ रहे उस मिथक का बड़े सम्मान के साथ उल्लेख किया है जिसमें कहा जाता है यह रामायण काल में अयोध्या के युवराज राजा रामचंद्र का वन गमन से लेकर राक्षसों का नाश करके राजधानी में फिर से वापस आने तक किन्नरों का चित्रकूट के घाट पर रुका रहना और उनसे यह आशीष पाना कि कलयुग में किन्नरों का शासन रहेगा ऐसे वचन की सीमा में जीते हुए भी आज के युग में शासन तो दूर की बात उन्हें तो शासन निर्माण में किए जा रहे मतदान में भी शामिल नहीं किया जा रहा था। जिसके लिए संघर्ष किया गया और उस संघर्ष का लाभ भी मिला और इन्हें वोट का अधिकार मिला।'किन्नर कथा' उपन्यास की प्रमुख पात्र चंदा है जिसे पहली नजर में सब कन्या ही समझते थे। चंदा का प्रेमी पहले उसे लड़की समझता है लेकिन जब उसे पता चलता है कि चंदा किन्नर है तो भी वह अपना विचार नहीं बदलता।चंदा का प्रेमी मनीष उसके बिना रह नहीं सकता।उसके इस प्रेम को देखते हुए प्रकृति भी उसका साथ देती है और अंततः चंदा की शल्यक्रिया की जाती है और वह परिपूर्ण स्त्री बन जाती है।इस तरह मनीष को अपने प्रेम का अभीष्ट मिल जाता है।महेंद्र भीष्म के लेखन में किन्नर अपनी देह के साथ ही नहीं अपनी आत्मा के साथ भी उपस्थित है। किन्नर के भावात्मक संवेग के साहित्य में स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। महेंद्र भीष्म के साहित्य में किन्नर का भौतिक संसार ही नहीं है उसका भावात्मक संसार भी है।इस समय यदि इनकी वस्तुस्थिति को देखा जाए तो किन्नर समाज की भौतिक स्थिति ठीक ही मिलती है।लेकिन सब चीज़ों के साथ समाज में स्वीकृति और सम्मान की भूख भी होती है।समाज में अपने यौन शोषण के साथ यह वर्ग सामाजिक स्वीकृति के लिए भी संघर्ष करता है और साथ में सम्मान के लिए भी।
मंगलमुखी (किन्नर)समाज का तथाकथित सभ्य यानी पारंपरिक समाज से सामान्य तौर पर अलक्षित संघर्ष दोहरा-तिहरा संघर्ष है। पहला संघर्ष तो उनका खुद की देह के कारण उसके मनोवेगों के साथ है और दूसरा संघर्ष उनके परिवार के साथ और तीसरा जो सबसे बड़ा संघर्ष है वह समाज के साथ किया जाने वाला संघर्ष है।समाज के साथ होने वाले संघर्ष को पुन:दो रूपों में देखा जा सकता है।पहला देह की रक्षा और दूसरा समाज में सम्मान मिलने की इच्छा।जिस भारतीय समाज में घर में कन्या के जन्म से मातम छा जाता हो उसमें अगर तीसरी जाति अर्थात् किन्नर का जन्म हो तो भला उस घर में कितनी बड़ी विपदा आ जाएगी।किन्नर समुदाय के इस दर्द को खुद भुक्तभोगी समुदाय के बाद अगर कोई बड़ी शिद्दत से महसूस कर सका है तो वह है साहित्यिक समाज।इसमें भी वरेण्य हैं महेंद्र भीष्म। इस समुदाय के प्रति इनकी सहानुभूति संवेदना के घनत्व तक विस्तृत है।इस समाज का सनातन धर्म में सम्मानपूर्णस्थान है।जिस तरह से रामायण काल में इनका प्रसंग आता है वैसे ही महाभारत काल में भी अज्ञातवास में अर्जुन भी बृहन्नला के रूप में राजा विराट के यहाँ नौकरी करते हैं। शिखंडी भी इसी मंगलमुखी(किन्नर) समुदाय से ही था।इस दृष्टि से इस समुदाय का पौराणिक महत्त्व भी कम नहीं है।डॉ विदुषी शर्मा,अकादमिक सलाहकार,इग्नो कहती हैं-"यदि हम उनका दर्द महसूस करके देखें तो हमें यह एहसास हो कि जब दूसरों को शादी करते हुए देखते हैं तो इनके मन पर क्या गुजरती होगी। जब ये लोग दूसरे लोगों को माता - पिता बनने का आनंद प्राप्त करते देखते हैं तो यह क्या सोचते होंगे? क्या इनमें भावनाओं की कमी है? क्या इनके कोई अरमान नहीं होंगे? परंतु यह सब भूल कर और इसे अपना भाग्य मानकर, नियति को स्वीकार कर लेते हैं तथा हमारी खुशियों को बढ़ाने के लिए हमारे घरों में दुआओं की बारिश करते हैं।"
प्राय:चर्चाओं में सुनने में आता है कि ईश्वर ने मानव समुदाय में केवल दो ही जातियां बनाई हैं स्त्री और पुरुष लेकिन ऐसी चर्चाओं में प्राय: उड़ा दिया जाता है कि तीसरी जाति भी है किन्नर की,जिसको हमारे समाज में कभी महत्व ही नहीं दिया गया।सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में आने के बाद ट्रांसजेंडर को मिला चुनाव का अधिकार किन्नर समुदाय के जीवन के लिए एक क्रांतिकारी घटना है।सदियाँ बिताने के बाद भी इस समुदाय ने अपना साहस नहीं खोया है।पौराणिक मान्यता पर विश्वास करें तो यह अवधि हज़ारों साल लंबी हो जाती है।वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न आधुनिक समय और समाज और उसके साहित्य तथा सिनेमा तीनों में मंगलमुखी (किन्नर) समुदाय हमेशा उपहास का पात्र रहा है। सभी को हंसाने, खिलखिलाने, गुदगुदाने और बधाइयां देने वाला यह समुदाय आदर और सम्मान न पा सके यह हमारे समाज की सबसे बड़ी विडंबना है।
महेंद्र भीष्म एक ऐसे संवेदनशील कथाकार हैं जिन्होंने किन्नर समुदाय के जीवन की संवेदना उससे गहरे जुड़कर उनकी पीड़ा को महसूस ही नहीं किया हैअपितु उन्हें एक नहीं दो-दो उपन्यासों में बड़ी गरिमा के साथ चित्रित भी किया गया है।उनके जीवन के दु:ख- दर्द को जितनी गंभीरता से महेंद्र भीष्म लेते हैं उससे यह प्रतीत होता है कि वे अपनी संवेदना को केवल किन्नर के दर्द लेखन तक ही सीमित नहीं करना चाहते बल्कि वह मंगलमुखी समुदाय को समाज में खोया हुआ स्थान दिलाना चाहते हैं जिससे कि वह अपनी प्रतिष्ठा को प्राप्त कर सके। ये सम्मानजनक जीवन जी सकें। लिंग और अन्य प्रकार के भेद भाव से ऊपर उठकर वे एक मनुष्य की तरह अपना जीवन यापन कर सकें। महेंद्र भीष्म कहते हैं कि,"उनके प्रति हमारी सोच में अश्लीलता का चश्मा क्यों चढ़ा रहता है किसी हत्यारोपी के साथ बेहिचक घूमने टहलने या उसे अपने ड्राइंग रूम में बैठाकर उसके साथ जलपान करने से हम नहीं डरते हैं पर किन्नर तो ऐसा कोई काम नहीं करता जो कि एक हत्यारोपी करता है तो हम किन्नरों से क्यों हिचकते हैं? आखिर क्यों वह कहते हैं कि किन्नर कभी किसी को शाप नहीं देते। वे केवल और केवल आशीष देना जानते हैं। दूसरों के सुख से खुश होकर नाचते-गाते और ढोल -ताशे बजाते हैं।एकांत में ईश्वर से अपना कसूर पूछते हुए कहते हैं हे ईश्वर हमें किन्नर क्यों बनाया हमारा संविधान हमारे हर नागरिक को लिंग और जातिभेद से ऊपर उठकर जीने की मान्यता देता है।सबको बराबर समझता है। क्षमता और समरसता के जीवन को प्राथमिकता देता है तो फिर हमारा समाज किन्नर समुदाय को उपेक्षा के नज़रिए से क्यों देखता है। किन्नरों को केवल यौनकर्मी के रूप में देखा जाता है यह इनके साथ एक प्रकार का अन्याय है।"इन्हें शिक्षा की सुविधाएं नहीं मिलती। सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा इन्हेें वोट देने का अधिकार प्रदान कर दिया गया है। इतना ही नहीं अभी इन्हें पिछड़े वर्ग में भी रखा जाएगा जिसके कारण इन्हें नौकरी में जाने में भी सुविधा होगी लेकिन इसके लिए सबसे जरूरी बात यह है कि समाज की विचारधारा को बदला जाए। इनके प्रति सामाजिक सोच को बदला जाए और जब किसी के यहां इस तरह के बच्चे का जन्म होता है तो उसे दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में ना पाला जाए। इन्हें बराबर शिक्षा दी जाए और नौकरियों में जाने के लिए भी मार्ग प्रशस्त किए जाएं। केवल सरकारी सुविधाओं के बढ़ने से ही मंगलमुखी(किन्नर) समुदाय के सामाजिक जीवन में कोई खास परिवर्तन आने वाला नहीं है।इसके लिए सबसे जरूरी पहल होगी सामाजिक सोच में बदलाव। महेंद्र भीष्म के लेखन में सामाजिक सरोकार बड़ी गंभीरता से आए हैं। आज के निचले तबके से लेकर इस किन्नर समुदाय के दर्द को जिस गंभीरता से महेंद्र भीष्म ने अपने साहित्य में इन्हें स्थान दिया है वह कथाकार के गंभीर और संवेदनशील होने का सबसे बड़ा प्रमाण है।आपके 5 के पांचों कहानी संग्रह में यह मानवीय सरोकार विद्यमान है।उनके उपन्यासों में 'किन्नर कथा', 'तीसरा कंबल' और 'मैं पायल' जिन सभी में मानवीय सरोकार उच्च और उदास लेखक बनाते हैं। बुंदेलखंड के कुलपहाड़ में जन्मे महेंद्र भीष्म साहित्य में आई संवेदना उनकी परवरिश का परिणाम भी कही जा सकती है।लेखक के माता-पिता की उदारता इन्हें बचपन से ही उन मानवीय सरोकारों की ओर खींचती रही है जिनके बिना यह समाज निष्प्राण रहता है।
लीक से हटकर इस मंगल मुखी(किन्नर) समुदाय के कुछ लोगों ने इतिहास भी रचा है । पद्मिनी प्रकाश जी पहली ऐसी किन्नर है जिन्होंने न्यूज़ एंकरिंग की। उन्होंने अपनी किताब "द ट्रुथ अबाउट मी" (THE TRUTH ABOUT ME )को थर्ड जेंडर लिटरेचर एट अमेरिकन कॉलेज ऑफ मदुरई के रूप में शामिल किया। मधुबाई के द्वारा मेयर का चुनाव जीतना तथा मध्यप्रदेश के सीहोर से विधायक के चुनाव में इस समुदाय के द्वारा सफलता हासिल करना इस समुदाय की लोकप्रियता का प्रमाण है।शांता खुरई जी ऐसी किन्नर हैं जिन्होंने सैलून खोलकर अपनी पहचान बनाई। दिल्ली की रुद्राणी क्षेत्री जी जानी मानी किन्नर मॉडल हैं। मानवी बंधोपाध्याय मंगलमुखी (किन्नर) प्रिंसिपल हैं। लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी किन्नरों को समाज में थर्ड जेंडर के रूप में पहचान दिलाने वाली प्रभावी नेता हैं।ये वे कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिन्होंने लीक से हटकर कुछ किया है तथा भविष्य में भी अपना कार्य सफलता पूर्वक करने के उत्साह के साथ आगे बढ़ रही हैं ।मंगल मुखी(किन्नर) समाज भी हर क्षेत्र में उन्नति कर सकता है। यह बात इन सब ने साबित कर दी है।
उपन्यास की केंद्रीय चरित्र लखनऊ की मंगलमुखी(किन्नर) गुरु पायल अपने बचपन का दर्द और कैशोर्य संवेग बयाँ करती हुई कहती है-"मैं अपनी वर्षों पुरानी साध पूरी करने के घर से 1 दिन लड़कियों वाले कपड़े लिपस्टिक बाल चोटी काजल पाउडर दिलजीत यार सामान खरीद कर ले आई और फिर अपने कमरे में अक्सर ही रात को आखिरी शो के बाद में सोने से पहले लड़कियों की तरह सोचने समझने लगी और शीशे के सामने खिलाती और डांस कर अपना शौक पूरा किया करती थी। मैं एक लड़की की भांति ही सोचती और संवेदना को महसूस किया करती थी। यहां तक कि प्रमोद की छेड़खानी जबरदस्ती की स्मृति और फिल्मों के रोमांटिक दृश्य मेरे शरीर मेरे मन मस्तिष्क पर छा जाते थे और मैं स्वाभाविक रूप में उत्तेजित रोमांचित हो सुनहरे सपनों में खो जाती थी।" पृष्ठ 90
एक मंगलमुखी(किन्नर)का न बचपन न जवानी।न इच्छा न भावना।उधार की ज़िंदगी कोई कब तक जी सकता है।अभिनय की ज़िंदगी की अच्छी लगती है पर जीवन भर अभिनय कैसे हो सकता है-"बड़ी बहन कमलेश दीदी ने मेरा नाम स्कूल में पायल सिंह लिखवा दिया था और मुझे बॉब कट बालों में स्कूल लड़की के रूप में अपने साथ ले जाती थी और मेरे प्रति पूरी सतर्कता बरतती।किसी को बाहर नहीं होने देती कि मैं क्या हूं ।मैं प्रात: स्कर्ट और टॉप बहन कर स्कूल जाती थी और जब पिता जी के आने के दिन पास आते मुझे स्कूल जाने नहीं दिया जाता। यहां तक कि मेरा घर से निकलना बिल्कुल बंद कर दिया जाता। मेरी सखी सहेलियों से झूठ बोला जाता जुगनी बीमार है।"पृष्ठ 31
पायल सिंह के पिता उसे जुगनी के नाम से पुकारते तो थे लेकिन समाज में उसे लड़के के रूप में देखना और दिखाना चाहते थे ।इसीलिए एक बार जब वह बाहर से लौटे तो जुगनी के लिए पैंट शर्ट भी लेते आए । उन्होंने पायल को एक पेड़ा खाने के लिए दिया उसने हाथ में ले लिया तो दूसरा उसके मुंह में उन्होंने स्वयं डाल दिया। जुगनी स्वीकारती है कि," मुझे देख गुस्से में लाल पीले होने की जगह बड़े प्रेम से पिताजी ने मुझे अपने पास बुलाया। मैं हिचकिचाते हुए उनके पास चली गई ।उन्होंने मुझे मिठाई के डिब्बे से एक पेड़ा निकालकर खाने को दिया जिसे मैंने अपनी मुट्ठी में दबा लिया तब उन्होंने दूसरा पेड़ा मेरे मुंह में डाल दिया। पेड़ा बहुत स्वादिष्ट था।मैं उसे खाने लगी उसे खत्म कर मैं दूसरा पेड़ा खा ही रही थी कि पिताजी ने दूसरा डिब्बा बैग से निकाल कर अम्मा से कहा देखो यह अपनी जुगनी के लिए है। अब यह पैंट शर्ट पहनेगी।लड़का बन कर रहेगी और इसका नाम जुगनू होगा।कोई भी इसे जुगनी नहीं बोलेगा। अब यह मेरा बेटा है।"पृष्ठ -30
"पिताजी के बाहर रहने पर अम्मा मुझे अपने पास ही सुलाती थी। बाबा के न रहने के बाद से परिवार की स्थिति बद से बदतर होती चली गई। ट्रक ड्राइवरी से मिलने वाला आधा पैसा तो पिताजी की दारु पीने की बुरी लत में स्वाहा हो जाता था। जो थोड़ी-बहुत खेती थी उसकी बटाई से साल भर के भोजन का इंतजाम हो जाता था। सच कहूं तो पिताजी मेरे हिजड़ा होने से और राकेश भैया की आवारगी से अंदर ही अंदर टूट रहे थे। बची खुची कसर दारू की लत निकाल रही थी। वो चिड़चिड़ेऔर क्रूर होते जा रहे थे। क्रोध में उनकी आंखें लाल हो जाती थी और चिल्लाने पर मुंह से खून निकल आता था।"पृष्ठ -33 
निश्कलुष बचपन को आनंद पूर्वक जीती जुगनी के जीवन में पिता का डर समा गया था।उसको यह भय भीतर से खोखला किए दे रहा था- "गोधूलि का समय था। खेल में हम सभी इतने व्यस्त थे कि मुख्य दरवाजे पर बजती सांकल हम में से किसी को सुनाई नहीं दी।अम्मा चिल्लाई तब भान हुआ कि कोई साँकल खटखटा रहा है। मैं उत्सुकता और प्रसन्नता से दौड़कर मुख्य द्वार तक गई और अंदर से मैंने दरवाजे की कुंडी खोल दी। दरवाजा खुलते ही दारू की दुर्गंध का भभका मेरे नथुनों में भर गया। आंखें चकित रह गईं।शरीर डर से कांपने लगा। मारे डर के मेरी घिग्घी बंध गई ।मैं किंकर्तव्यविमूढ़ -सी अपने सामने नशे में झूमते अपनी देह के दाता को देख रही थी जिन्होंने मुझे लड़की के कपड़े पहने देख लिया था। वह भी सोलह श्रृंगार किए।"पृष्ठ-36 
बचपन कलंकित।जीवन नर्क। कैसा दर्द होगा उस बचपन का जिसे उसकी ज़िंदगी जीने ही न दी जाए।जिसका कोई दोष न हो उसे पग-पग पर अपमान भला कैसे सहन हो सकता है- "भगवान! धरती फटे और मैं उसमें समा जाऊं उस समय मेरी ऐसी मन:स्थित हो रही थी । कमोबेश ऐसी ही स्थिति मेरे पीछे आ खड़ी हुई मेरी तीनों बड़ी बहनों की हो रही थी।अम्मा चौके से आवाज़ में पूछे जा रही थी -कौन है? जुगनी कौन आया है? अरे कुछ बोलती क्यों नहीं? क्या हुआ?तुम सबको सांप सूंघ गया क्या ?चौके से बाहरआकर अम्मा ने जो नजारा देखा वह उनके लिए अप्रत्याशित था।वह वहीं की वहीं जड़ होकर रह गई। दो दिन पहले ही तो पिताजी गए थे फिर अचानक वापसी! कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। "पृष्ठ- 36
समाज के भीतर की क्रूरता किसी न किसी व्यक्ति के चरित्र से ही फूटती है।इसी समाज का नशा है कि शराबी पिता को समाज की चिंता है पर अपनी बच्ची की नहीं।प्रकृति प्रदत्त रूप की ऐसी सजा कि बाल मन ही नहीं देह भी छलनी हो गई- " पिताजी मुख्य द्वार अंदर से बंद करने के लिए मुले ही थे कि मैं अपने शरीर की सारी शक्ति समेट अम्मा के पास रसोई घर की ओर भागने के लिए पलटी पर भागने से पहलेे मेेरी फराक का पिछला हिस्सा पिताजी के हाथों में आ चुका था जिसे उन्होंने एक झटके में टुकड़े-टुकड़े कर दिया। मेरी चोटी नोच ली और मुझे बालों से पकड़ बुरी तरह पीटने लगे।वह मुझे मारते जा रहे थे। अपने हाथों से पैरों से और मेरे शरीर से लड़की के सारे कपड़े हटा मारते हैं। घर जाते घसीटते हुए निरंकुश हो उठे थे।गुस्से में अपना आपा खो चुके थे। मुझे बचाने कोई नहीं आ रहा था। पिताजी का ऐसा वीभत्स चेहरा मैंने पहले कभी नहीं देखा था।पिताजी ने पास रखी बाल्टी में भरे पानी से मुझे नहला दिया। फिर वहीं रखी चमड़े की चप्पल को टब में भरे पानी में डूबा डूबा कर मेरे शरीर की चमड़ी उधेड़ने में लगे रहे तब तक जब तक कि मैं बेहोश नहीं हो गई ।पल भर के लिए होश आता देखती अम्मा मेरे ऊपर लेटी पिताजी की चप्पलों से पिटा रही थी फिर वह मुझे बचाते हुए स्वयं कितनी देर तक पिटी पता नहीं ।मैं तो कब की बेसुध हो चुकी थी। मैं अपना जीवन बचाने की जद्दोजहद में लग गई। दोनों पैर किसी तरह कीटों के चट्टे पर मजबूती से जमा हुए थी जरा सी लापरवाही मेरे लिए जानलेवा हो सकती थी मैं अम्मा को पुकारना चाह रही थी पर मुंह से ठीक से आवाज नहीं निकल पा रही थी अम्मा की बहुत याद आ रही थी उस अंधेरे घास और कंधे से भर एक अप्रैल के कमरे में जहां मैं अपनी सहेलियों के साथ आइस पाइस धप्पा खेलते छुपा कर दी थी यह कच्चा कमरा हमारे घर के पीछे बारे में बना हुआ था जिसके समानांतर अन्य कमरों में मवेशी रहा करते थे ।पृष्ठ36-37
इस उपन्यास में वह मंगल मुखी समाज मनोविज्ञान है जिसे कोई फ्रायड नहीं मिला।इसी वज़ह से यहाँ का इडिपस कन्प्लेक्श सामाजिक काम्प्लैक्स बन के रह जाता है।यहाँ एक साथ समाज मनोविज्ञान भी है और बाल मनोविज्ञान भी। साथ ही बच्चे के भीतर लिंग बोध से उपजे असुरक्षा का भय भी है।इस मनो विज्ञान के आलोक में साफ़ देखा जा सकता है कि बच्चों को शरीर का दर्द उतना नहीं सताता जितना मन का और बच्चा जब अधर में हो तो उसके संवेग और प्रबल हो जाते हैं।इस कारण वे कभी-कभीऐसे फैसले भी ले लेते हैं जिससे उनका सारा जीवन नर्क हो जाता है-"एकाएक मेरे मन में विचार आया फिर पीटी जाऊं मारी जाऊँ इससे अच्छा है मैं खुद ही न मर जाऊं और फिर एक बार जो मेरे मन में यह विचार आया तो फिर मरने की इच्छा गहराती चली गई ।अम्मा को भीगी पलकों से निहारते हुए दालान में पड़े तख्त पर लेटे अपने जन्मदाता को देख रोने लगी । मुझे वह दृश्य याद आ गया जब भरे गले पिताजी ने मुझे पहली बार स्नेह के साथ लड़के के कपड़े देते हुए कहा था 'जुगनू।' जुगनू नाम से जिंदा रहे। मैंने तख्त के दो चक्कर लगाते हुए पिताजी की ओर देखा। उनके पैरों के पास आकर अपना सिर रख दिया और बिना पीछे मुड़कर देखे घर का दरवाजा खोल--- देह का विनाश करने निकल पड़ी मैंने तय कर लिया था घर के बाहर के रास्ते अगले मोड पर बने कुएं में छलांग लगा दूंगी ना रहेगी यह हिजड़ा देह ना रहेंगे ताने जो मुझे और मेरे परिवार को मेरे कारण मिल रहे थे। पिताजी मानसिक कष्ट विहीन हो जाएंगे।मेरी वजह से अम्मा और बहनों को जो संताप और दुख उठाने पड़ते हैं उससे वह मुक्त हो जाएंगी।" पृष्ठ -40 
भागे हुए कदम ऊँच-नीच नहीं देखते।जहाँ भी रोशनी दिखती है उसी की सीध में चल पड़ते हैं-"मेरे कदम प्लेटफार्म की ओर बढ़ चले।गार्ड के डिब्बे के बाद वाले डिब्बे में ना के बराबर सवारियां दिखी। गार्ड हरी झंडी देने लगा ।ट्रेन धीरे-धीरे सरकने लगी। एकाएक मेरा ध्यान स्वयं पर गया। मैंने अपने शरीर की सारी शक्ति समेट कर स्वयं को ट्रेन के सातवेें डिब्बे में चढ़ा लिया।तलवे से खून बराबर रिस रहा था।खाली खिड़की के पास जाकर मैैं बैठ गई और रिस रहे खूँ को रोकने के लिए पास पड़े कागज के टुकड़े को उठाकर मैंने घाव पर रख लिया। दिशा हीन सी मैं एक अलग दुनिया में प्रवेश करने जा रही थी। आने वाली अनेक अनजान दुश्वारियां मेरे सामने आने वाली थी जिसकी शुरुआत मेरे सामने वाली बर्थ पर बैठे मोटे चिकने (धोती कुर्ता पहने)ने कर दी थी।"पृष्ठ 41
बच्चों के लिए कठोर मर्यादाएँ गढ़ने वाला समाज एकांत पाकर कितना कामान्ध हो उठता है।इसकी बानगी जुगनी की ज़िंदगी के कोने-कोने से उठाई जा सकती है। निर्जन स्थान ही नहीं जन संकुल ट्रेन में भी वह कितनी असुरक्षित है- "नाम नहीं बताया तुमने अपना ?" उसने मेरे बाएं पैर का पंजा अपनी गोद पर रख लिया तो पूछा ही कब था फिर भी मैंने उसे सहमते हुए बताया 'जुगनी। 'बहुत अच्छा नाम है', वह मेरे पैर के पंजे से ऊपर हाथ सरका रहा था।" पृष्ठ 43 मैं सहमी हुई कुछ ना बोली पर उसकी गंदी हरकतें समझ रही थी। वह मेरे बाप की उम्र का था।"वही पृष्ठ 43
बच्चों के यौन शोषण के खिलाफ कोई संगठन कितना भी प्रयास कर ले।यह तब तक अच्छे परिणाम नहीं देने वाला है जब तक समाज का अभयन्तर नहीं बदलता-"मैं घबरा गई प्रौढ़ की हरकतें बढ़ती जाीं। उसने मेरा पैर अपने घोड़े के ऊपर जो रख लिया था। हे भगवान !मैं डर गई। मेरे घबराहट के मारे सिटी पिट्टी गुम हो गई। उसका हाथ मेरी पिंडली से ऊपर सरकने लगा था। मैंने जोर लगाकर अपना पैर खींच लिया और सामने की बर्थ पर जा बैठी।" वही पृष्ठ -43
जुगनी को जब इस मोटे कितने अधूरे से छुटकारा मिला तो एक पुलिस वाला उसके पीछे पड़ गया-"मुझे लगा कोई -------छातियों पर हाथ रख उन्हें टटोलने में लगा है। मेरी नींद टूटी। मैं जाग गई और उठ कर बैठ गई ।प्लेटफार्म की लाइट जल रही थी। शाम ढल चुकी थी। ----- क्यों लड़की कहां जाना है मेरी बगल में बैठा गंदी हरकतें करने वाला मुछड़ सिपाही मुझसे बोला।" पृष्ठ- 47
कथाकार समाज के उस पक्ष को हमारे सामने लाता है जो अछूते छूट जाते हैं।जुगनी की उम्र भले कम है लेकिन दरिंदों को भलीभांति पहचानती है। उनकी मंशा को भांप लेती है।लेकिन विवश है क्योंकि उसके साथ कोई मदद करने वाला दूसरा नहीं है। एक पुलिस वाला उसे अंधेरे में ले जाना चाहता है। वह उससे कहता है -"उठ चल उधर बैठते हैं। अंधेरे में वह मुझे घसीट कर प्लेटफार्म की दूसरी ओर ले आया जहां पर रोशनी कम थी। ले पकड़ अपने रुपए और सुन क्या नाम है तेरा !वह मुझे रुपए कमाने के साथ ही मेरा हाथ पकड़ कर बोला मैं शांत रही हे भगवान यह क्या बला है कैसे-कैसे लोग भरे पड़े हैं! समाज में इससे अच्छा तो मैं मर ही जाती! घर में पिताजी की मार खाती। वही पड़ी रहती। यह चारों तरफ फैले घोड़े वाले बस एक ही काम जानते हैं दूसरा नहीं। यह भी पिताजी की उम्र का नहीं तो मुझसे बहुत बड़ा है ही इसके भी तो मेरी तरह कोई लड़की होगी। कैसे कुछ दुष्ट लोग हैं यह।"पृष्ठ 47
कामान्धता से ग्रस्त समाज को लानत देने के लिये कथाकार वे प्रसंग बड़ी शिद्दत से उठाता है जिन्हें पीड़ित को खुद घर वाले पी जाने के लिए कहते हैं- "उसने मेरी बाई छाती बेरहमी से मसल दी मैं दर्द से रोने लगी।उसने मुझे चिपका लिया । अरे चुप कर चुप कर नहीं यह डंडा देख रही है ना घुसेड़ दूूँगा। वह खड़ा हो गया। इधर -उधर टहल कर थोड़ी देर बाद फिर आया और फिर वही गंदी हरकतें करने लगा। मेरे कानों के पास कुछ बताते हए खोला। देख थोड़ा मोटा है पर तुझे तकलीफ नहीं होगी। चल मीठा खिलाऊंगा। वह चौकन्ना और उत्तेजित था। उसकी सांसें तेज- तेज चलने लगी थीं। चेहरे पर कामुकता चढ़ आई थी ।उसके मुंह से बदबूदार लार टपक रही थी। मेरा बुरा हाल था।मैं डरी हुई थी पर संभली हुई थी। मैंने निश्चय कर लिया था कि इस कमीनेे के साथ कहीं नहीं जाऊंगी। मुझे मालूम था यदि मै इसके साथ गई तो निश्चित ही यह अपने घोड़े से मुझे चोट पहुंचाएगा और तकलीफ देगा।" पृष्ठ 48-49 
लड़की के रूप में मिले बुरे अनुभवों से उसे पता हो गया था कि वह इस तरह से तो अपना जीवन आगे नहीं जी पाएगी। कोई न कोई बुरे हादसे का उसे शिकार हो जाना पड़ेगा ।इसलिए उसने जब एक युवक को नहाते हुए देखा तो उसे उसके वस्त्रों पर लालच
आ गया और उसने उसके वस्त्र चुराकर पहन लिए और उस दिन के बाद फिर वह अपने पिता की इच्छा पूरी कर दी। जिससे बचने के लिए भागी थी उसी में एक बार फिर उलझ के रह गई।लड़की से लड़का बन गई," एक लड़का मुझसे उम्र में बड़ा नंगे बदन पटरी के पास के रबड़ पाइप को खोले नहा रहा था।उसके कपड़े कुछ दूरी पर रखे हुए थे अचानक मेरे अंतर्मन से उन कपड़ों को उठा लेने की आवाज आई ।मैं लड़कों के कपड़े पहले भी पहना करती थी।मेरे दिमाग में क्या ख्याल आया यह तो मुझे आगे से इन घोड़ों से बचना है और स्वयं को उनकी चोट से बचाए रखना है तो लड़का बनकर ही रहना होगा। यह विचार आते ही मैंने उस नहा रहे लड़के के कपड़े 
चुपके से चुरा लिए। उसे कपड़े जो कपड़े चोरी होने का अंदाजा नहीं था मैंने मुड़कर देखा ओम मस्त नहाने में लगा था । "पृष्ठ -51 
लड़के के वेश में होते हुए भी कम उम्र जुगनू के जीवन में संकट कुछ कम नहीं थे। उसे भोजन के लाले थे। जिसके लिए भी वो तरस रही थी।एक दिन एक महिला के पास रखी पूदियों पर लल्चाई नज़रों से देख रही थी तब महिला ने अपने बच्चे से दो पूरियां उसके पास भिजवाई।उसे यह भय सता रहा था कि कहीं कोई उसकी यह दो पूरियां छीन ना ले। इसलिए उसने उन दोनों पूड़ीयौं को मज़बूूती से पकड़ रखा था और उन्हें कट्टू बनाकर खा रही थी-"मैंने मजबूती से दोनों को ----कसकर पकड़ लिया और खाने लगी।उस दिन की भूख में वह दो पूरियां अपर्याप्त थी। पर उनका वह अनूठा स्वाद मेरी जिह्वा पर आज भी मौजूद है और आंखों में रची बसी है। उन बच्चों की मां जिसने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए मुझसे कहा था।कैसा लड़का है लड़कियों की तरह रोता है।" पृष्ठ- 57 
कथाकार महेंद्र भीष्म उन परिस्थितियों की निर्मिति नहीं भूलते जिसमें मंगलमुखी समाज उन स्त्रियों की भी चिंता करता है जिसका ये भी हिजड़ा कह कर मज़ाक उड़ाती हैं।जुगनी ने अपनी लड़की के वेश को त्यागकर लड़के का वेश क्यों धारण किया था। इसके लिए वह स्वयं से तमाम तर्क करती है और बाद में स्पष्ट भी करती है कि घर परिवार से दूर होते ही बाहर के समाज में लड़की का रूप लिए रहना असुरक्षित है।हे भगवान! यह मैं जानती हूं और जानती होंगी वह सभी स्त्रियां जो मेरी जैसी स्थिति से अक्सर दो-चार होती होंगी या कभी परिवार से अलग- थलग पड़ गई होंगी। यह बता दें कि नरभक्षी भेड़ियों की -- नजरों को बड़ी शिद्दत से महसूस किया होगा जो मादा गंध के उठते ही खूंखार हो उठते हैं और मौका मिलते ही दबोच लेने के लिए उतावले बने रहते हैं। सारी आजमाइश के बाद क्रूरता नग्नता पर उतर आते हैं और मसल देना चाहते हैं नारी देह को नोच खसोोोट के साथ अपनी बर्बरता की निशानियां उस पर छोड़ देना चाहते हैं तब तक जब तक कि वह स्वयं भी ---नहीं जाते और पिछड़ने के बाद में --- कुत्ते की तरह कुकू करते हो जाते हैं अंधे समाज के अंधेरे कोनों में।" वही पृष्ठ-57
दिन भर की थकान से पायल जब गहरी नींद में थी तो चौकीदार का उससे बलात्कार का प्रयास समाज के भीतर के भेड़ियों (कामुक दरिन्दों)का वह निशाचरी कृत्य है जिसे समाज दिन में चादर के नीचे ढक देता है-" ठंडे पानी के स्नान से शरीर में तरावट आ गई थी। -- एकांत में अंधेरे में सोने चली गई। देर रात में सपने देख रही थी कोई मुझे प्यार कर रहा है। मैं मादक मनमोहक अंदाज में -- हूं। मेरे साथी के हाथ मेरे शरीर पर यत्र तत्र फिसल रहे थे। उस सुखद सत्संग सेरोमांटिक और उत्तेजित हो रही थी। ऐसी किसी स्थिति में फल में मुझे लगा कि यह यथार्थ में मेरे साथ हो रहा है ।दिवास्वप्न टूटा और मैंने देखा मेरी बगल में कोई लेटा है और मुझे अपने में समेटने की तैयारी में -----। वह मेरे ऊपर आ गया मैं उठ ना सकी।" पृष्ठ 86 
कथाकार की संवेदना खुद उसे भी जुगनी की स्वानुभूति से गहरे जोड़ देती है।इसी के कारण वह इसे आंदोलन का रूप दे सका है।वह जेंडर के दर्द को ही नहीं उसकी भूख की पीड़ा को भी महसूस सका है। वह जान सका है कि भूख इतनी असह्य और अंधी होती है कि अगर एक बार लग जाए तो फिर कुछ दिखाई नहीं पड़ता और सामने जो कुछ भी दिख जाता है उसे खा लेने का मन करता है।भूखे जुगनी जब देखती है कि दो यात्रियों में भोजन को लेकर चर्चा होती है तो उसमें ध्यान लगा देती है एक यात्री अपने दूसरे साथी से कहता है कि मेरे भोजन से तो बदबू आ रही है तो उसे कहता है कि अपना भोजन फेंक दो और मेरे मै से खा लो। जुगनी देखती है कि वह बदबूदार भोजन उन पटरियों के बीच फेंक दिया जाता है जहाँ मल पड़ा हो सकता है।पागल भी मल और विमल का भेद जानता है।लेकिन जुगनी यह होश नहीं रहता इससे उसकी भूख अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है।उसी मल के आसपास वह जाती है और उन पराठों को उठा लेती है जिसमें घुइयां की सब्जी भी है ।पूरी और घुइयां की थोड़ी सब्जी को वह बड़े चाव से खाती है।उसका विवरण भी जुगनू ने बड़ी संवेदनशील भाषा में किया है-" मैं प्लेटफार्म से उतर कर फेंके गए भोजन को उन दोनों की नजरों से बचाकर उठा लाई और दूर आ गई। मैंने देखा अखबार में लिपटे पर आंखों के बीच घुइयां की सब्जी थी जो दूर से ही दूर गंध दे रही थी। मेरा मन उसे खाने के लिए न हुआ पर प्रभु! कितनी तेज लगी थी कि मुझसे रहा नहीं गया और मैंने उस दिन घुइयां की सब्जी और पराठे खा कर अपनी क्षुधा मिटाई थी।"पृष्ठ - 60
अकेले पड़ जाने के खतरे और दु:ख वही बता सकता है जिसने खुद झेला हो,"रेलवे गोदाम के पास जूट का एक खाली बोरा पड़ा दिख गया। जैसे डूबते को तिनके का सहारा। मैंने वह बोरा उठा लिया और पुल के उस कोने में चली आई जहां मैं और अनवर अक्सर खाली समय को बिताया करते थे पर वहाँ भी कई लोग पहले से आकर बैठे थे । मुझे थकान के कारण जोरों से नींद आ रही थी। पुल के किनारे बोरा बिछाते ही शीत लहर से मेरी नींद कब आ गई।पता ही न चला।----- मैंने बोरा लपेटा प्लेटफार्म पर नंबर एक ही छत के नीचे और प्लेटफार्म के ऊपर किसी कोने में खाली जगह दी गई।वहां अंधेरा भी था और कोहरे से कुछ स्पष्ट दिख भी नहीं रहा था।" पृष्ठ 68 
बाहर से धर्म परायण दिखने वाले हमारे तथाकथित समाज का मूल चरित्र वासना मूलक है।इसे जुगनी कानपुर के एक थियेटर में पुरुष वेष में काम करते समय भी महसूसती है,"मैं प्रमोद चौकीदार की ओर से बहुत चौकन्नी रहती थी। प्रमोद पच्चीस छब्बीस साल का साँवला मझोले कद काठी का था । उसे मैंने अक्सर फिल्म देखने आई लड़कियों महिलाओं को बुरी नजरों से घूरते पाया था। मैं उसकी नियत जानती थी वह मनोरोगी नहीं किंतु कामांध जरूर था।"पृष्ठ-73
अरे यार तू तो बड़ा सीरियस हो गया। तुझसे थोड़ी मस्ती क्या कर ली तू तो नाराज ही हो गया ।अरे टॉकीज में इंसाफ का तराजू क्या फिल्म लगी है। इसमें देखा नहीं तूने !राज बब्बर पद्मिनी कोल्हापुरी के साथ क्या मस्त बलात्कार करता है । मैंने तो यह सीन बीसों बार देखा है। साला क्या रेप करता है झकास!दादा को आवाज दूं क्या दादा को आवाज दूं क्या-- प्रमोद मेरी नकल करता हुआ वहां से चला गया। "पृष्ठ -74 एक दिन जोली को लेकर प्रमोद से मेरा झगड़ा हो गया उस दिन मेरा मन इतना खिन्न हो गया था कि मैं बिना कुछ सोचे-समझे किशोर पन का दिमाग जो ठहरा मैंने ठेकेदार संतोषी की कैन्तीन छोड़ देने का निश्चय कर लिया और किसी को बताए बिना वहां से निकल आई। यह सोच कर कि पंडित जी की चाय की दुकान पर पहले की तरह काम करूंगी वहां पर कम से कम सुकून तो है प्रमोद जैसा घात लगाए कोई काम हो तो वहां नहीं है पर मेरा दुर्भाग्य चाय वाले पंडित जी स्वर्ग सिधार चुके थे"।पृष्ठ- 75 एक व्यक्ति मेरे पास उसी बेंच पर आकर बैठ गया और मुझ से मीठी-मीठी बातें करने लगा। मुझे काम दिलाने की बात करने लगा ।मुझे लगा यह काम का आदमी है। उसने मुझे वहीं से लेकर पूरियां खिलाईंऔर मुझे काम दिलाने के बहाने अपने साथ रेलवे स्टेशन से बाहर ले आया। मैं काम पाने के लालच में उसके झांसे में आ गई और वह मुझे एक पुरानी गोदाम जैसी जगह ले आया जहां पहले से मेरी उम्र के मेरे जैसे कई लड़के-लड़कियां मौजूद थे।"पृष्ठ- 76 
'मैं पायल' शीर्षक से ही स्पष्ट है कि यह मैं शैली में लिखा गया है।इसलिए इसे आत्मकथात्मक उपन्यास कहा जाना उचित है।इसे जीवनीपरक उपन्यास कहने से बेहतर है यह नाम देना- "मैं यहां एक बात स्पष्ट कर दूं। जिस तरह लड़कियों को एक उम्र के बाद मासिक धर्म शुरू हो जाता है उस उम्र में हम किन्नरों को मासिक धर्म नहीं होता क्योंकि हमारे गर्भाशय तो होता ही नहीं।परंतु माहवारी के चार-पांच दिनों में जननांग के अग्रभाग में खुजली होती है और उसे छू लेने मसलने को जी चाहता है। निप्पल को दबाने से दूध निकलता है। ठीक वैसे ही जैसे बच्चे की मां को निकलता है।दूध निकलने के बाद बेहद सुकून मिलता है जो मेरी तरह बुचरा किन्नर होते हैं। वै सामान्यत: स्त्रियां ही लगते हैं।"-पृ 83 भारत,पाकिस्सतान,नेपाल और बन्ग्लादेश मानव तस्करी के लिये कुख्यातबहैं। मैं पायल में कथाकार ने देश के भीतर व्याप्त कई सामाजिक बुराइयों और उनसे उपजे सामाजिक अपराध को एक विमर्श ही नहीं उसे दूर करने के लिए आन्दोलन खड़ा किया है।इस दृष्टि से आन्दोलन धर्मी लेखक हैं।उनके शब्द जब जब समाज में कुछ हलचल पैदा करते हैं तभी उन्हें चेन मिलता है। पायल जब एक धोखेबाज मानव तस्कर के चंगुल में फंस गई तो वहाँ से निकलना मुश्किल हो गया।उसके बाद मुक्त हुई तो फिर आनाथाश्रम में उसे अपनी माँ से मिलने का अवसर मिला- "बड़ी मैम जबसे मुझे हासिल की थी वह मुझे जुगनू नाम का लड़का समझती थी। फलस्वरूप उन्होंने ही कुछ दिनों मुझे लड़कों के साथ ही रखा था ।हर औपचारिकताएं पूरी हुई। ---- बाल सुधार गृह श्याम बाबा राकेश भैया के साथ बाहर आ गई। मैंने अम्मा से उनके साथ गांव वापस जाने के लिए साफ मना कर दिया।पिताजी की मार मैं अभी तक भूली नहीं थी और रोज-रोज की मार और अपमान भरी जिंदगी ----। ऊपर से राकेश भैया भी मुझे गांव ले जाने के पक्ष में नहीं लगे क्योंकि मैं उनके लिए जुगनू या जुगनी नहीं केवल और केवल एक हिजड़ा थी।" पृष्ठ -79 
" मैंने इस नर्क से भागने की दो बार कोशिश की पर दोनों बार गिरोह के गुंडों के द्वारा पकड़ी गई और मारपीट के साथ मुझे कई कई रोज़ तक भूखा रखा गया। भूख क्या होती है यह मुझे यहां पता चला। वह क्या-क्या समझौते करा ले जाती है। यूं ही पता चला। मेरे सारे हौसले पस्त पड़ गए थे वह आज भी उस नर्क को याद करने मात्र से दो खड़े हो जाते ही फोन बिना अपने भाग की नियति मानकर मैं अपने दिन काट रही थी पूर्णविराम वो कालाकु सेट बदसूरत नाटक रोड जो मुझे फुसलाकर यहां लेकर आया था सिर पर सफेद जालीदार टोपी पहने पूरा जल्लाद दिखता था। वही इस गिरोह का मुखिया भी था।पृ- 77 मंगल मुखी समाज का सबसे बड़ा दर्द है समाज में उसकी अस्वीकार्यता।इसीलिएआन्दोलन धर्मी चेतना के कथाकार महेन्द्र भीष्म पायल में जो स्वाभिमान जगाते हुए मिलते हैं वह दुहरे दायीत्त्व निभाती है।बह एक ओर समाज को इनके प्रति संवेदनशील बनाती है वहीं दूसरी ओर उनमें भी स्वाभिमान जगाती है जो ताली पीट-पीटकर समाज में मनोरंजन ही अपना दायित्त्व मान बैठे थे- "देर रात तक मुझे लेकर अम्मा और मौसी में खुसुर-पसर होती रही। मैं जाग रही थी। मैंने सुना मौसी अम्मा से कह रही थी 'दीदी! जब तुम जुगनी को नहीं रख पाए तो मैं कैसे इसे अपने पास रख सकूंगी।कोई एक-दो दिन की बात तो है नहीं बच्चों को जब जुगनी की असलियत पता चलेगी कि वह हिजड़ा है तो वह भी गुस्से से न छोड़ेंगे और यह तो एक पल भी रखने को तैयार नहीं होंगे। न दीदी ना! मैं न रख पाऊंगी तुम्हारी हिजड़े जुगनू को।" पृष्ठ 80
महेंद्र भीष्म के कथा साहित्य में मंगल मुखी (कीन्नर)समुदाय का जो दर्द अभिव्यक्त हुआ है,वह किसी लाभ-लोभ या बौद्धिक करुणा की उपज नहीं है।यहाँ यशकामना भी उस अर्थ में नहीं है जिसमें समझी जाती रही है। इस तरह महेंद्र भीष्म के समूचे कथा साहित्य और विशेष रूप से 'किन्नर कथा'और 'मैं पायल' में 'पायल' की झंकृति पर झूमता लोक है।उस लोक का आलोक है।इसमें जो सन्वेदना और करुणा है वह क्रौंच वध और घायल हंस के दर्द से उपजी वाल्मीकि और बुद्ध की करुणा है जो व्यावहारिक धरातल पर केवल करुणा तक ही सीमित नहीं रहती अपितु आह्वान या आन्दोलन में बदलती

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