
पं0 नेहरू से मिलने एक व्यक्ति आये। बातचीत के दौरान उन्होंने पूछा- ''पंडित जी आप 70 साल के हो गये हैं लेकिन फिर भी हमेशा गुलाब की तरह तरोताजा दिखते हैं। जबकि मैं उम्र में आपसे छोटा होते हुए भी बूढ़ा दिखता हूँ।'' इस पर हँसते हुए नेहरू जी ने कहा- ''इसके पीछे तीन कारण हैं।'' उस व्यक्ति ने आश्चर्य-मिश्रित उत्सुकता से पूछा, वह क्या ? नेहरू जी बोले- ''पहला कारण तो यह है कि मैं बच्चों को बहुत प्यार करता हूँ। उनके साथ खेलने की कोशिश करता हूँ, जिससे मुझे लगता है कि मैं भी उनके जैसा हूँ। दूसरा कि मैं प्रकृति प्रेमी हूँ और पेड़-पौधों, पक्षी, पहाड़, नदी, झरना, चाँद, सितारे सभी से मेरा एक अटूट रिश्ता है। मैं इनके साथ जीता हूँ और ये मुझे तरोताजा रखते हैं।'' नेहरू जी ने तीसरा कारण दुनियादारी और उसमें अपने नजरिये को बताया- ''दरअसल अधिकतर लोग सदैव छोटी-छोटी बातों में उलझे रहते हैं और उसी के बारे में सोचकर अपना दिमाग खराब कर लेते हैं। पर इन सबसे मेरा नजरिया बिल्कुल अलग है और छोटी-छोटी बातों का मुझ पर कोई असर नहीं पड़ता।'' इसके बाद नेहरू जी खुलकर बच्चों की तरह हँस पड़े। यहाँ बचपन की महत्ता को दर्शाती किसी गीतकार द्वारा लिखी गई पंक्तियाँ याद आती हैं -
ये दौलत भी ले लो
ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वे कागज की कश्ती वो बारिश का पानी।
बचपन एक ऐसी अवस्था होती है, जहाँ जाति-धर्म-क्षेत्र कोई मायने नहीं रखते। बच्चे ही राष्ट्र की आत्मा हैं और इन्हीं पर अतीत को सहेज कर रखने की जिम्मेदारी भी है। बच्चों में ही राष्ट्र का वर्तमान रूख करवटें लेता है तो इन्हीं में भविष्य के अदृश्य बीज बोकर राष्ट्र को पल्लवित-पुष्पित किया जा सकता है। दुर्भाग्यवश अपने देश में इन्हीं बच्चों के शोषण की घटनाएं प्रतिदिन की बात हो गयी हैं और इसे हम नंगी आंखों से देखते हुए भी झुठलाना चाहते हैं- फिर चाहे वह निठारी कांड हो, स्कूलों में अध्यापकों द्वारा बच्चों को मारना-पीटना हो, बच्चियों का यौन शोषण हो या अनुसूचित जाति व जनजाति से जुड़े बच्चों का स्कूल में जातिगत शोषण हो। हाल ही में रा'ट्रीय नाट्य विद्यालय की ओर से नई दिल्ली में आयोजित प्रतियोगिता के दौरान कई बच्चों ने बच्चों को पकड़ने वाले दैत्य, बच्चे खाने वाली चुड़ैल और बच्चे चुराने वाली औरत इत्यादि को अपने कार्टून एवं पेंटिंग्स का आधार बनाया। यह दर्शाता है कि बच्चों के मनोमस्तिष्क पर किस प्रकार उनके साथ हुये दुर्व्यवहार दर्ज़ हैं, और उन्हें भय में खौफनाक यादों के साथ जीने को मजबूर कर रहे हैं।
यहाँ सवाल सिर्फ बाहरी व्यक्तियों द्वारा बच्चों के शोषण का नहीं है बल्कि घरेलू रिश्तेदारों द्वारा भी बच्चों का खुलेआम शोषण किया जाता है। हाल ही में केन्द्र सरकार की ओर से बाल शोषण पर कराये गये प्रथम राष्ट्रीय अध्ययन पर गौर करें तो 53.22 प्रतिशत बच्चों को एक या उससे ज्यादा बार यौन शोषण का शिकार होना पड़ा, जिनमें 53 प्रतिशत लड़के और 47 प्रतिशत लड़कियाँ हैं। 22 प्रतिशत बच्चों ने अपने साथ गम्भीर किस्म और 51 प्रतिशत ने दूसरे तरह के यौन शोषण की बात स्वीकारी तो 6 प्रतिशत को जबरदस्ती यौनाचार के लिये मारा-पीटा भी गया। सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह रहा कि यौन शोषण करने वालों में 50 प्रतिशत नजदीकी रिश्तेदार या मित्र थे। शारीरिक शोषण के अलावा मानसिक व उपेक्षापूर्ण शोषण के तथ्य भी अध्ययन के दौरान उभरकर आये। हर दूसरे बच्चे ने मानसिक शोषण की बात स्वीकारी, जहाँ 83 प्रतिशत जिम्मेदार माँ-बाप ही होते हैं। निश्चितत: यह स्थिति भयावह है। एक सभ्य समाज में बच्चों के साथ इस प्रकार की स्थिति को उचित नहीं ठहराया जा सकता।
बालश्रम की बात करें तो आधिकारिक आँकड़ों के मुताबिक भारत में फिलहाल लगभग 5 करोड़ बाल श्रमिक हैं। अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने भी भारत में सर्वाधिक बाल श्रमिक होने पर चिन्ता व्यक्त की है। ऐसे बच्चे कहीं बाल-वेश्यावृत्ति में झोंके गये हैं या खतरनाक उद्योगों या सड़क के किनारे किसी ढाबे में जूठे बर्तन धो रहे होते हैं या धार्मिक स्थलों व चौराहों पर भीख माँगते नजर आते हैं अथवा साहब लोगों के घरों में दासता का जीवन जी रहे होते हैं। सरकार ने सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों द्वारा बच्चों को घरेलू बाल मजदूर के रूप में काम पर लगाने के विरुद्ध एक निषेधाज्ञा भी जारी की पर दुर्भाग्य से सरकारी अधिकारी, कर्मचारी, नेतागण व बुद्धजीवी समाज के लोग ही इन कानूनों का मखौल उड़ा रहे हैं। अकेले वर्ष 2006 में देश भर में करीब 26 लाख बच्चे घरों या अन्य व्यवसायिक केन्द्रों में बतौर नौकर काम कर रहे थे। गौरतलब है कि अधिकतर स्वयंसेवी संस्थायें या पुलिस खतरनाक उद्योगों में कार्य कर रहे बच्चों को मुक्त तो करा लेती हैं पर उसके बाद उनकी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेती हैं। नतीजन, ऐसे बच्चे किसी रोजगार या उचित पुनर्वास के अभाव में पुन: उसी दलदल में या अपराधियों की शरण में जाने को मजबूर होते हैं।
ऐसा नहीं है कि बच्चों के लिये संविधान में विशिष्ट उपबन्ध नहीं हैं। संविधान के अनुच्छेद 15(3) में बालकों के लिये विशेष उपबन्ध करने हेतु सरकार को शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। अनुच्छेद 23 बालकों से दुर्व्यवहार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात्श्रम प्रतिशिद्ध करता है। इसके तहत सरकार का कर्तव्य केवल बन्धुआ मजदूरों को मुक्त करना ही नहीं वरन् उनके पुनर्वास की उचित व्यवस्था भी करना है। अनुच्छेद 24 चौदह वर्ष से कम उम्र के बालकों के कारखानों या किसी परिसंकटमय नियोजन में लगाने का निषेध करता है। यही नहीं नीति निर्देशक तत्वों में अनुच्छेद 39 में स्पष्ट उल्लिखित है कि बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरूपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर उन्हें ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हों। इसी प्रकार बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधायें दी जायें और बालकों की शोषण से तथा नैतिक व आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाय। संविधान का अनुच्छेद 45 आरम्भिक शिशुत्व देखरेख तथा 6 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिये शिक्षा हेतु उपबन्ध करता है। इसी प्रकार मूल कर्तव्यों में अनुच्छेद 51(क) में 86वें संशोधन द्वारा वर्ष 2002 में नया खंड (ट) अंत:स्थापित करते हुये कहा गया कि जो माता-पिता या संरक्षक हैं, 6 से 14 वर्ष के मध्य आयु के अपने बच्चों या, यथा-स्थिति अपने पाल्य को शिक्षा का अवसर प्रदान करें। संविधान के इन उपबन्धों एवं बच्चों के समग्र विकास को वांछित गति प्रदान करने के लिये 1985 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन महिला और बाल विकास विभाग गठित किया गया। बच्चों के अधिकारों और समाज के प्रति उनके कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए 9 फरवरी 2004 को 'राष्ट्रीय बाल घोषणा पत्र' को राजपत्र में अधिसूचित किया गया, जिसका उद्देश्य बच्चों को जीवन जीने, स्वास्थ्य, देखभाल, पोषाहार, जीवन स्तर, शिक्षा और शोषण से मुक्ति के अधिकार सुनिश्चित कराना है। यह घोषणापत्र बच्चों के अधिकारों के बारे में अन्तर्राष्ट्रीय समझौते (1989) के अनुरूप है, जिस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किये हैं। यही नहीं हर वर्ष 14 नवम्बर को नेहरू जयन्ती को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा मुसीबत में फँसे बच्चों हेतु चाइल्ड हेल्प लाइन-1908 की शुरुआत की गई है। 18 वर्ष तक के जरुरत मन्द बच्चे या फिर उनके शुभ चिन्तक इस हेल्प लाइन पर फोन करके मुसीबत में फंसे बच्चों को तुरन्त मदद दिला सकते हैं। यह हेल्प लाइन उन बच्चों की भी मदद करती है जो बालश्रम के शिकार हैं। हाल ही में भारत सरकार द्वारा 23 फरवरी 2007 को 'बाल आयोग' का गठन भी किया गया है। बाल आयोग बनाने के पीछे बच्चों को आतंकवाद, साम्प्रदायिक दंगों, उत्पीड़न, घरेलू हिंसा अश्लील साहित्य व वेश्यावृत्ति, एड्स, हिंसा, अवैध व्यापार व प्राकृतिक विपदा से बचाने जैसे उद्देश्य निहित हैं। बाल आयोग, बाल अधिकारों से जुड़े किसी भी मामले की जाँच कर सकता है और ऐसे मामलों में उचित कार्यवाही करने हेतु राज्य सरकार या पुलिस को निर्देश दे सकता है। इतने संवैधानिक उपबन्धों, नियमों-कानूनों, संधियों और आयोगों के बावजूद यदि बच्चों के अधिकारों का हनन हो रहा है, तो कहीं न कहीं इसके लिये समाज भी दोषी है। कोई भी कानून स्थिति सुधारने का दावा नहीं कर सकता, वह मात्र एक राह दिखाता है। जरूरत है कि बच्चों को पूरा पारिवारिक-सामाजिक व नैतिक समर्थन दिया जाये, ताकि वे राष्ट्र की नींव मजबूत बनाने में अपना योगदान कर सकें।
कई देशों में तो बच्चों के लिए अलग से लोकपाल नियुक्त हैं। सर्वप्रथम नार्वे ने 1981 में बाल अधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक अधिकारों से युक्त लोकपाल की नियुक्ति की। कालान्तर में आस्ट्रेलिया, कोस्टारिका, स्वीडन (1993), स्पेन (1996), फिनलैण्ड इत्यादि देशों ने भी बच्चों के लिए लोकपाल की नियुक्ति की। लोकपाल का कर्तव्य है कि बाल अधिकार आयोग के अनुसार बच्चों के अधिकारों को बढ़ावा देना तथा उनके हितों का समर्थन करना। यही नहीं निजी और सार्वजनिक प्राधिकारियों में बाल अधिकारों के प्रति अभिरुचि उत्पन्न करना भी उनके दायित्वों में है। कुछ देशों में तो लोकपाल सार्वजनिक विमर्शों में भाग लेकर जनता की अभिरुचि बाल अधिकारों के प्रति बढ़ाते हैं एवं जनता व नीति निर्धारकों के रवैये को प्रभावित करते हैं। यही नहीं वे बच्चों और युवाओं के साथ निरन्तर सम्वाद कायम रखते हैं, ताकि उनके दृष्टिकोण और विचारों को समझा जा सके। बच्चों के प्रति बढ़ते दुर्व्यवहार एवं बालश्रम की समस्याओं के मद्देनजर भारत में भी बच्चों के लिए स्वतंत्र लोकपाल व्यवस्था गठित करने की माँग की जा रही है। पर मूल प्रश्न यह है कि इतने संवैधानिक उपबन्धों, नियमों-कानूनों, संधियों और आयोगों के बावजूद यदि बच्चों के अधिकारों का हनन हो रहा है, तो समाज भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता।
आज जरूरत है कि बालश्रम और बाल उत्पीड़न की स्थिति से राष्ट्र को उबारा जाये। ये बच्चे भले ही आज वोट बैंक नहीं हैं पर आने वाले कल के नेतृत्वकर्ता हैं। उन अभिभावकों को जो कि तात्कालिक लालच में आकर अपने बच्चों को बालश्रम में झोंक देते हैं, भी इस सम्बन्ध में समझदारी का निर्वाह करना पड़ेगा कि बच्चों को शिक्षा रूपी उनके मूलाधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिये। गैर सरकारी संगठनों और सरकारी मशीनरी को भी मात्र कागजी खानापूर्ति या मीडिया की निगाह में आने के लिये अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं करना चाहिये बल्कि उनका उद्देश्य इनकी वास्तविक स्वतन्त्रता सुनिश्चित करना होना चाहिये। आज यह सोचने की जरूरत है कि जिन बच्चों पर देश के भविष्य की नींव टिकी हुई है, उनकी नींव खुद ही कमजोर हो तो वे भला राष्ट्र का बोझ क्या उठायेंगे। अत: बाल अधिकारों के प्रति सजगता एक सुखी और समृद्ध राष्ट्र की प्रथम आवश्यकता है।
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21 टिप्पणियाँ
बालश्रम और बाल उत्पीड़न की स्थिति देश में भयावह है। आपने बहुत मार्मिक चित्र खींचा है जो सोचने को बाध्य करता है। सच्चा बाल दिवस तभी है।
जवाब देंहटाएं"ये बच्चे भले ही आज वोट बैंक नहीं हैं पर आने वाले कल के नेतृत्वकर्ता हैं। उन अभिभावकों को जो कि तात्कालिक लालच में आकर अपने बच्चों को बालश्रम में झोंक देते हैं, भी इस सम्बन्ध में समझदारी का निर्वाह करना पड़ेगा कि बच्चों को शिक्षा रूपी उनके मूलाधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिये। गैर सरकारी संगठनों और सरकारी मशीनरी को भी मात्र कागजी खानापूर्ति या मीडिया की निगाह में आने के लिये अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं करना चाहिये बल्कि उनका उद्देश्य इनकी वास्तविक स्वतन्त्रता सुनिश्चित करना होना चाहिये। आज यह सोचने की जरूरत है कि जिन बच्चों पर देश के भविष्य की नींव टिकी हुई है, उनकी नींव खुद ही कमजोर हो तो वे भला राष्ट्र का बोझ क्या उठायेंगे। अत: बाल अधिकारों के प्रति सजगता एक सुखी और समृद्ध राष्ट्र की प्रथम आवश्यकता है।"
जवाब देंहटाएंउपसंहार गंभीर है।
Liked the article, deep thoughts.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
आंकडे चिंताजनक हैं। बच्चों की स्थिति पर गंभीर काम की जरूरत है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आलेख है, बधाई।
हाल ही में केन्द्र सरकार की ओर से बाल शोषण पर कराये गये प्रथम राष्ट्रीय अध्ययन पर गौर करें तो 53.22 प्रतिशत बच्चों को एक या उससे ज्यादा बार यौन शोषण का शिकार होना पड़ा, जिनमें 53 प्रतिशत लड़के और 47 प्रतिशत लड़कियाँ हैं। 22 प्रतिशत बच्चों ने अपने साथ गम्भीर किस्म और 51 प्रतिशत ने दूसरे तरह के यौन शोषण की बात स्वीकारी तो 6 प्रतिशत को जबरदस्ती यौनाचार के लिये मारा-पीटा भी गया। सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह रहा कि यौन शोषण करने वालों में 50 प्रतिशत नजदीकी रिश्तेदार या मित्र थे। शारीरिक शोषण के अलावा मानसिक व उपेक्षापूर्ण शोषण के तथ्य भी अध्ययन के दौरान उभरकर आये। हर दूसरे बच्चे ने मानसिक शोषण की बात स्वीकारी, जहाँ 83 प्रतिशत जिम्मेदार माँ-बाप ही होते हैं। निश्चितत: यह स्थिति भयावह है। एक सभ्य समाज में बच्चों के साथ इस प्रकार की स्थिति को उचित नहीं ठहराया जा सकता।
जवाब देंहटाएंआपके लेख से उपरोक्त उद्धरण से मन सिहर गया। बच्चों के लिये कुछ करने के लिये कृत-संकल्प होना आवश्यक है। सच्चे बाल दिवस की बात हम तभी कर सकते हैं।
बहुत अच्छा आलेख है, बाल दिवस की बधाई।
जवाब देंहटाएंयह आलेख समाज में बच्चों की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत करता है. यदि हमारे नेतृत्व ने इसे गंभीरता से नहीं लिया तो कुछ दिन बाद बाल दिवस मजाक बन जायेगा और बचपन को खोजना वाकई मुश्किल होगा. आकांक्षा जी लिख ही नहीं रहीं हैं, खूब लिख रही हैं. अंतर्जाल पर तमाम वेब-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ पढने को मिलती रहती हैं. संस्कृत की प्रवक्ता होने के साथ-साथ हिंदी साहित्य के प्रति उनकी रूचि और विशेषकर नारी और बच्चों से जुड़े मामले जिस तरह उनकी लेखनी से निसृत हो रहे हैं, काबिलेतारीफ है........बाल दिवस की हार्दिक शुभकामनायें और आकांक्षा जी को इस अनुपम लेख हेतु ढेरों बधाई !!
जवाब देंहटाएंsamaj ko chehara dikhata ek behatrin alekh...Congts. to Akanksha Yadav ji.
जवाब देंहटाएंयह लेख पढ़कर हैरान हूँ, परेशान हूँ. साहित्य शिल्पी ने बाल दिवस पर किसी सतही लेख की बजाय एक विश्लेष्णात्मक लेख पाठकों के सामने रखकर इस धारण को सिद्ध कर दिया है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है. ...साहित्य शिल्पी का प्रयास रंग ला रहा है. आकांक्षा यादव को इस विशेष प्रस्तुति हेतु विशेष रूप से धन्यवाद देना चाहूँगा. आपके अन्य लेखों की बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी.
जवाब देंहटाएंVery Informative & interesting article...My wishes are with Akanksha Yadav and Sahitya Shilpi.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंएक सार्थक लेख..निश्चय ही इस दिशा में बहुत किया जाना शेष है और विश्व का भविष्य सुनिश्चित करने के लिये बाल विकास पर ध्यान देना आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य है
जवाब देंहटाएंईश्वर का वरदान हैं,बच्चे सुख की खान.
जवाब देंहटाएंइन्हें संभालो आज तुम , कल ये खुद वरदान.
ये कल के वरदान,प्रेम-भावों के भूखे.
ना रहने दें इन्हें उपेक्षित-रूखे-सूखे.
कह साधक कवि, ये बच्चे जीवन -मुस्कान हैं.
पलकों में रख लो जावन का वरदान हैं.
हर दिन बच्चे हंसें , खेलें , गाएं गुनगुनाएं, फूलों से खिलें , खुशबु से महकें।चाचा नेहरु एक दिन याद आते हैं , ठीक है, पर बच्चों के ख़ातिर -हर दिन बाल दिवस सा मने। संभव नहीं है क्या?
जवाब देंहटाएंआपकी जानकारी आंखें खोलने के लिये क़ाफ़ी है।
इतने अंजान क्यों हैं हम ?
प्रवीण पंडित
आपने बिल्कुल सही कहा आकांक्षा जी "बाल अधिकारों के प्रति सजगता एक सुखी और समृद्ध राष्ट्र की प्रथम आवश्यकता है।"
जवाब देंहटाएंअच्छी पेशकश ... देश आगे चला जा रहा है और इस दौड़ में बचपन कहीं पीछे छूटता जा रहा है |
जवाब देंहटाएंवाह अजय जी
जवाब देंहटाएंआपने बहुत ही संवेदन शील लेख लिखा। ये बिल्कुल सच है कि आज बच्चों के विकास पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है। बाल दिवस पर आपकी प्रस्तुति बहुत सार्थक लगी।
"kho raha hai bachpan"sargarbhit
जवाब देंहटाएंlekh kee jitni prashashaa kee jaaye
utni kam hai.
आकांक्षा जी,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति की जितनी प्रशंसा की जाये कम है। पूरे अध्ध्यन के साथ नीरस आंकडे नहीं अपितु संवेदनशील आलेख एक सक्षम कलम का परिचायक है व सोचपूर्ण, संवेदनशील हृदय का भी। आपको नमन।
***राजीव रंजन प्रसाद
sahitya shilpi ko mubarak ho har prayas ke liye jo sakaratmak disha mein kadam le ja raha hai. Lekh, alekh agar positively nayi surang khodkar kuch roshini ki raah bana paaye to aur behta hoga.
जवाब देंहटाएंkahan hai vo bache, kahan hai vo bachpan
jo hum dhoondhte hi rahe paalnon mein.
koi to bataye kahan dhoondhein
Devi Nangrani
jio;j;
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.