
साहित्य शिल्पी नें 25 नवम्बर 2010 को ‘लाला जगदलपुरी’ का साक्षात्कार प्रस्तुत किया था जिस पर एक लम्बी परिचर्चा/ विमर्श भी हुआ था। लाला जगदलपुरी के कार्यों और रचनाओं की फेरहिस्त लम्बी है। उन्होंने न केवल हिन्दी तथा क्षेत्रीय आदिम बोलियों/भाषाओ में सृजन किया साथ ही बस्तर की संस्कृति और इतिहास पर भी उनका कार्य मानक माना जाता है। लाला जगदलपुरी की रचनाओं को अंतर्जाल पर संग्रहित करने के प्रयास में हम अब उन्हें प्रति सोमवार पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करेंगे। इस कडी में सबसे पहले उनके काव्य संग्रह “ मिमियाती ज़िन्दगी दहाडते परिवेश से रचनायें प्रस्तुत हैं। लाला जगदलपुरी का यह ग़ज़ल संग्रह 1983 में प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तिका की आवरण सज्जा की थी डॉ. राकेश स्वरूप भटनागर नें एवं प्रकाशन व्यवस्था जयप्रकाश तथा भरत बेचैन द्वारा की गयी थी। इस ग़ज़ल संग्रह का मुद्रण बलरामसिंह सेंगर, दंतेश्वरी प्रिंटर्स, जगदलपुर द्वारा किया गया। लाला जगदलपुरी नें यह ग़ज़ल संग्रह सत्यनारायण श्रीवास्तव “कमतर” को समर्पित किया है।
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रचनाकार की आत्म-प्रस्तुति
गेय रचनाओं में प्रारंभ से ही “ग़ज़ल” मुझे अधिक रुचती है, क्योंकि एक “ग़ज़ल” में कम से कम पाँच विचार विन्दु मिलते हैं। “ग़ज़ल” की बुनावट, गागर में सागर भरने का काम करती है। “ग़ज़ल” गीतात्मक अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। इसी कारण हिन्दी में इतनी लोकप्रिय हुई।
हिन्दी में ग़ज़ल लेखन, पहले से होता आ रहा है,परंतु तब हिन्दी में “ग़ज़ल” का नामकरण संस्कार नहीं हुआ था। हिन्दी नें बडे प्यार से उर्दू के इस गीति रूप को अपनाया और अपनी प्रकृति के अनुरूप इसे संस्कारा भी।
“हिन्दी-ग़ज़ल” सम्बोधन की घोषणा से पहले भी मैं ग़ज़ल लेखन करता था। प्रस्तुत संग्रह में सन 1960 से ले कर 1981 तक की अन्यान्य रचनाओं के साथ साथ बुनी गयी हिन्दी ग़ज़लों में से कुछ चुनी चुनायी हिन्दी-ग़ज़लों का समावेश हुआ है।
मैं अपने इस ग़ज़ल संगह को उन सुधी पाठकों के हाँथों में सौंप रहा हूँ जिन्हें काव्यत्व की गहरी सूझ है।
-लाला जगदलपुरी
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सज्जन कितना बदल गया है
दहकन का अहसास कराता, चंदन कितना बदल गया है
मेरा चेहरा मुझे डराता, दरपन कितना बदल गया है।
आँखों ही आँखों में, सूख गयी हरियाली अंतर्मन की;
कौन करे विश्वास कि मेरा, सावन कितना बदल गया है।
पाँवों के नीचे से खिसक खिसक जाता सा बात बात में;
मेरे तुलसी के बिरवे का, आँगन कितना बदल गया है।
भाग रहे हैं लोग मृत्यु के, पीछे पीछे बिना बुलाये;
जिजीविषा से अलग-थलग यह, जीवन कितना बदल गया है।
प्रोत्साहन की नयी दिशा में, देख रहा हूँ, सोच रहा हूँ;
दुर्जनता की पीठ ठोंकता, सज्जन कितना बदल गया है।
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बस्ती यहाँ कहाँ पिछडी है
जिसके सिर पर धूप खडी है
दुनियाँ उसकी बहुत बडी है।
ऊपर नीलाकाश परिन्दे,
नीचे धरती बहुत पडी है।
यहाँ कहकहों की जमात में,
व्यथा कथा उखडी उखडी है।
जाले यहाँ कलाकृतियाँ हैं,
प्रतिभा यहाँ सिर्फ मकडी है।
यहाँ सत्य के पक्षधरों की,
सच्चाई पर नज़र कडी है।
जिसने सोचा गहराई को,
उसके मस्तक कील गडी है।
और कहाँ तक प्रगति करेगी,
बस्ती यहाँ कहाँ पिछडी है?
15 टिप्पणियाँ
लाला जगदलपुरी की रचनाओं को संग्रहित करने का बडा कार्य करने के लिये साहित्युअ शिल्पी को बहुत बहुत धन्यवाद। लाला जगदलपुरी नें अपनी आत्मप्रस्तुति में जो सादगी दिखायी है वह उनके व्यक्तित्व को प्रदर्शित करती है। दोनों ही ग़ज़लें बहुत अच्छी हैं
जवाब देंहटाएंप्रोत्साहन की नयी दिशा में, देख रहा हूँ, सोच रहा हूँ;
दुर्जनता की पीठ ठोंकता, सज्जन कितना बदल गया है।
जाले यहाँ कलाकृतियाँ हैं,
जवाब देंहटाएंप्रतिभा यहाँ सिर्फ मकडी है।
गहन अनुभवो भरी रचनायें। लाला जगदलपुरी को प्रणाम
बहुत बड़ा जिम्मा आपने लिया है, और ऐसे प्रयास से ही आपका कथन 'अगर आप लाला जगदलपुरी को नहीं जाने ...' यानि अब आपके पास इस सवाल का जवाब होगा कि हम लालाजी को जानना चाहें, तो कैसे जानें, बधाई और शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंImportant Work has been done. I liked the Gazals and the thing most impressed me was - हिन्दी-ग़ज़ल” सम्बोधन की घोषणा से पहले भी मैं ग़ज़ल लेखन करता था। प्रस्तुत संग्रह में सन 1960 से ले कर 1981 तक की अन्यान्य रचनाओं के साथ साथ बुनी गयी हिन्दी ग़ज़लों में से कुछ चुनी चुनायी हिन्दी-ग़ज़लों का समावेश हुआ है।
जवाब देंहटाएंThanks a lot.
जब हम हिन्दी गज़ल कहते हैं तो आम तौर पर बस लिपि देवनागरी हो जाती है परंतु भाषा वही उर्दूनिष्ठ रहती है। इन रचनाओं हिन्दी-गज़ल की झलक मिल रही है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा काम है। दर असल आधुनिक हिंदी की स्थापना में यहाँ के लोगों ने बहुत अच्छा काम किया था वह इतिहास फोटोग्राफ्स और हस्तलिपियाँ सभी संग्रहणीय है सरकार इतना अच्छा काम नहीं कर रही और हमारा अहिंदी माहौल लोगों को उत्साहित नहीं होने देता ऐसे वातावरण में आप इस काम में लगेंगे तो औरों को भी उत्साह आएगा हमें यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिये कि सरकार या बड़े संस्थान ही सब काम करें हमें स्वयं इतना काम करना चाहिये कि हम स्वयं एक संस्थान बन जाएँ मुझे खशी है कि आप इस ओर कदम बढ़ा चुके हैं
जवाब देंहटाएंलाला जगदलपुरी जी की रचनओं को पड्ना एवम उन पर चर्चा होना सुखद अहशास है
जवाब देंहटाएं'सज्जन कितना बदल गया है!' का व्यंग्य प्रभावी है। रचना प्रांजल होने के साथ कलात्मक भी है।
जवाब देंहटाएं*महेंद्रभटनागर
राजीव, तुम बस्तर के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हो। बधाइयां। इस सिलसिले को जारी रखना होगा दोस्त।
जवाब देंहटाएंआभार साहित्य शिल्पी का....
जवाब देंहटाएंजिज्ञासा प्रबल हो गयी है उन्हें पढ़ने की और भी....
प्रतीक्षा है...
गीता .
राजीव जी,
जवाब देंहटाएंआपकी और साहित्य-शिल्पी की मेहनतों के फलस्वरूप हीं हम "लाला" जी को जान पा रहे हैं। मैं बता नहीं सकता कि उन्हें जानकर और पढकर मुझे कितनी खुशी हुई है। मुझे याद है जिस दिन आपने मेरा "नेत्रों से नीर टालने का वक़्त आ गया है" पढा तो कहा था कि हमें हिन्दी में ग़ज़ल लिखने वाले लोग चाहिए। दुष्यंत कुमार के बाद या उनके अलावे ऐसे लोग कम हीं नज़र आते हैं। आज जब लाला जी की ये हिन्दी की दो ग़ज़लें पढने को मिलीं, तब मुझे समझ आया कि आपके अंदर यह "टीस" कहाँ से आई थी। लाला जी ने खुद कहा है कि वे हिन्दी-ग़ज़लें तब से लिख रहे हैं जब से हिन्दी में ग़ज़ल नाम की विधा को साहित्यिक तौर पर स्वीकार भी नहीं किया गया था, वैसे में लोग अगर लाला जी को जाने हीं नहीं, उनकी रचनाओं को पहचानें हीं नहीं और उनके बाद उत्तराधिकारी के तौर पर प्रस्तुत न हों तो किसी भी हिन्दी-साहित्य-मर्मज्ञ को बुरा लगेगा हीं।
लाला जी की बाकी रचनाओं का इंतज़ार रहेगा। उन्हीं के शब्दों में:
यहाँ कहकहों की जमात में,
व्यथा कथा उखडी उखडी है।
उम्मीद है कि हिन्दी-साहित्य कहकहों की दुनिया से ऊपर निकल आएगा... शीघ्र हीं।
साहित्य-शिल्पी के प्रयासों की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है।
धन्यवाद,
विश्व दीपक
हकीकत की जमी से निकली हर आह / दुआ में असर होता है. सत्यता से अत्यन्त नजदीकी रखती लाला जी की रचनायें और उनकी सादकी निश्चय ही सराहनीय है...उनसे इतना नजदीकी परिचय करवाने के लिये राजीव जी का आभार.
जवाब देंहटाएंAadarniy bhaaii Raajiiv Ranjan jii
जवाब देंहटाएंAapakaa aur aapakii team kaa is mahatwapuurn pahal ke liye haardik abhinandan! Shraddheya Laalaa jii kii rachanaaon ko antarjaal par paathakon ke liye muhaiyaa karane kaa aapkaa prayaas stutya hai. Main aap logon ke is pawitra aur atyant mahatwapuurn abhiyaan ke prati natmastak hun aur mujhe isase jud kar jo aatmik sukh milegaa main use shabdon mein bayaan nahii kar sakataa.
Koii sanshay nahin ki Laalaa jii ko padhane ke baad paathakon ko aapake is kathan se sahamat honaa hii hogaa ki sachmuch 'अगर आप लाला जगदलपुरी को नहीं जाने तो आप मुक्तिबोध को भी नहीं जानते, तो आप नागार्जुन को भी नहीं जानते और आप निराला को भी नहीं जानते और आप बस्तर को भी यकीनन नहीं जानते।' Mere saamane aadarniya Laalaa jii ke muktakon kaa ek aprakaashit sangrah rakhaa huaa hai, jise unhone mujhe 27.02.09 ko badii hii kripaa puurwak saunpaa thaa aur jisake prakaashan ke liye main pryaasrat hun, se kuch muktak yehaan denaa chaahungaa:
01.
Jo timir ke bhaal par ujale nakhat padhate rahe
We bahaadur sankaton ko jiit kar badhate rahe
Kantakon kaa saamanaa karate rahe jisake charan
O batohii! phuul usake shiish par chadhate rahe.
02.
Shaurya ke suuraj chamakate aa rahe hain,
Saanjh unake vyom par aatii nahin hai.
Aarati ke diip jalate jaa rahe hain,
Aandhiyon kii jiit ho paatii nahin hai.
03.
Suury Chamakaa saanjh kii saugaat de kar bujh gayaa
Chaand chamakaa aur kaalii raat de kar bujh gayaa
Kintu maatii ke diye kii den hii kuchh aur hai
Raat hamane dii jise, wah praat de kar bujh gayaa.
Shesh aage.......
आदर्णीय हरिहर वैष्णव जी का बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंमैं साहित्य शिल्पी के पाठकों को बताना चाहता हूँ कि बस्तर को ले कर प्रामाणिक और गहन कार्य करने वाले विद्वानों में आदरणीय हरिहर वैष्णव जी का नाम शीर्ष पर माना जाता है। आपकी अनेकों किताबें बस्तर की सांस्कृतिक परंपराओं पर उपलब्ध हैं।
आदर्णीय लाला जी के लिये आरंभ किये गये साहित्य शिल्पी के प्रयास को आपका आशीर्वाद निरंतर प्राप्त हो रहा है। आपनें एक संस्मरणात्मक आलेख भी साहित्य शिल्पी को उपलब्ध कराया है जिसे शीघ्र ही हम अपने पाठकों के समक्ष रखेंगे।
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आपकी टिप्पणी देवनागरी मे - आपका और आपकी टीम का इस महत्वपूर्ण पहल के लिये हार्दिक अभिनंदन। श्रद्धेय लाला जी की रचनाओं को अंतर्जाल पर पाठकों के लिये मुहैय्या कराने का आपका प्रयास स्तुत्य है। मैं आप लोगों की इस पवित्र और अत्यंत महत्वपूर्ण अभियान के प्रति नतमस्तक हूँ और मुझे इससे जुड कर जो आत्मिक सुख मिलेगा उसे मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता। कोई संशय नहीं कि लाला जी को पढने के बाद पाठकों को आपके इस कथन से सहमत होना ही होगा कि सचमुच " अगर आप लाला जगदलपुरी को नहीं जाने तो आप मुक्तिबोध को भी नहीं जानते, तो आप नागार्जुन को भी नहीं जानते और आप निराला को भी नहीं जानते और आप बस्तर को भी यकीनन नहीं जानते।"
मेरे सामने आदर्णीय लाला जी के मुक्तकों का एक अप्रकाशित संग्रह रखा हुआ है जिसे उन्होंने मुझे 27.02.09 को बडी ही कृपा पूर्वक सौंपा था और जिसके प्रकाशन के लिये मैं प्रयासरत हूँ, से कुछ मुक्तक यहाँ देना चाहूँगा।
01.
जो तिमिर के भाल पर उजले नख़त पढते रहे
वे बहादुर संकटों को जीत कर बढते रहे
कंटकों का सामना करते रहे जिसके चरण
ओ बटोही! फूल उसके शीश पर चढते रहे।
02.
शौर्य के सूरज चमकते आ रहे हैं,
सांझ उनके व्योम पर आती नहीं है
आरती के दीप जलते जा रहे हैं
आँधियों की जीत हो पाती नहीं है।
03.
सूर्य चमका सांझ की सौगात दे कर बुझ गया
चाँद चमका और काली रात दे कर बुझ गया
किंतु माटी के दिये की देन ही कुछ और है
रात हमने दी जिसे वो प्रात दे कर बुझ गया।
शेष आगे...
साहित्य सिल्पी पर राजीव जी द्वारा लिया गया लाला जगदलपुरी का साक्षात्कार 25.11.2010 को प्रकाशित हुआ। राजीव जी चाहते थे लालाजी इसे ’नेट’ पर देखें, उन्होनें मुझे फोन पर कहा ’लाला जी’ को किसी प्रकार उक्त साक्षात्कार को दिखा दूँ। मेरे पास लेपटाप नहीं था, इसलिए मैंने अपने मित्र दीपक चक्रवर्ती जीवन बीमा अभिकर्ता से संपर्क किया एवं 27.11.10 लगभग 12 बजे लाला जी के ’कवि निवास’ पहुँचे ।
जवाब देंहटाएं91 साल से ज्यादा की उम्र के कारण उन्हें भ्रम हो जाता है। उन्होंने मुझे पहचाने का प्रयास किया एवं कहा तुम पखनागुड़ा वाले हो ना, मैंने लिखकर पर्ची दी एवं उनके कहे की पुष्टी की। उन्हें कम सुनाई पडता है अतः मैंने लिख कर ही वार्तालाप षुरू किया। मैंने उन्हे नेट पत्रिकाओं संबन्धी कुछ और जानकरियां देते हुए ’लेप टाप’ पर साहित्य सिल्पी को खोला, आँख गड़ा-गड़ा कर लालाजी समूचे प्रकरण को पढ़ रहे थे साथ ही मैं भी उनकी मदद कर रहा था, अंत में मैंने लिख कर उनसे उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही। उन्होंने मेरा लिखा पढ़ा, मेरी तरफ देखा उनकी आँखों में एक चमक एवं चेहरे पर खुशी के भाव थे उन्होनें कहा ये तो बहुत अच्छा माध्यम है, हमारे समय में नेट की सुविधा नहीं थी। उन्होंने मुझे मुझे आशीर्वाद दिया एवं राजीव जी को आशीष देते हुए कहा कि एसे काम से तुम लेखकीय परम्परा का निर्वहन कर सकोगे। करीब डेढ़ घण्टे उनके साथ बिता मैंने उनसे विदा ली।
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