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कबरीके [कहानी]- महेन्द्र भीष्म

उसका भला-सा नाम है ‘संतराम’, पहले लोगों के मुँह से वह सन्तू, सन्तुवा या सन्तूरे पुकारा जाता था।
धीरे-धीरे सन्तू, सन्तुवा या सन्तूरे कब लुप्त हो गया और ‘कबरीके’ का सम्बोधन उसके लिये कब शुरू हो गया, उसे ठीक से याद नहीं।
कबरी’ उसकी स्वर्गवासी ‘माँ’ को पुकारा जाता था जो शायद उसके शरीर पर पड़े सफेद दागों की वजह से कहा जाने लगा था।
माँ के बारे में उसे बताया जाता था कि उसकी माँ विधवा या परित्यक्ता थी। वह सुन्दर थी। उसके अनेक लोगों से सम्बंध था शायद  इन्हीं खराब कर्मों-गुणों से ही वह सफेद दाग,राजयक्ष्मा फिर अकाल मृत्यु का ग्रास बनी। ऐसा वह सोचता था लोगों के बार-बार कहे जाने के कारण।
भोला दोपहर में उसकी झुग्गी में आकर उसे बुखार होने के बावजूद अपने साथ इस बारात घर में ले आया था। पचास रुपये और भरपेट भोजन, कहाँ कम था पर कल दोपहर से भूखा, रातभर ज्वर से ग्रस्त कबरीके को कमजोरी से चक्कर आ रहे थ्¨। टेंट हाउस के मुन्शी ने दो गोली बुखार की खिलाईं, खाली पेट। भोला और वह दोनो दरबान का भेष धरे हाथ में भाला पकड़े बारात घर के मुख्य द्वार पर बुत की भाँति ढेर सारी हिदायतों के साथ खड़े कर दिये गये थे।
मुन्शी ने चेताया था, ‘जगह से हिलना नहीं’। बारात घर दुल्हन की तरह सजाया गया था, चारों ओर दूधिया लाइटें जगमगा रही थीं। सात बजे से ही लोगों का आना शुरू हो गया था।
‘‘कबरीके......काँप क्या रहा है?ठीक से खड़ा रह।’’ भोला ने मौका देख कभी धीरे से कभी जोर से दो तीन बार दूसरी ओर खड़े कबरीके को आगाह किया।
‘‘भोला भैया ताप चढ़ रहा है, ठंड भी लग रही है.........खड़ा नहीं हुआ जाता.........भाला के सहारे कब तक खड़ा रहूँ। चक्कर से आ रहे हैं।’
‘‘क्यों सालों! गिटपिट-गिटपिट कर रहे हो।’’ वहाँ से गुजरते मुन्शी ने दोनों को डाँट पिलायी।
‘‘मुन्शी जी! कबरीके को ताप चढ़ा है, बुखार है।’’ भोला मिमियाया।
‘‘बुखारी की दवा तो दी थी....उतरा नहीं क्या? दिखा हाथ....अरे ये भी कोई बुखार है, इतना
गरम तो मेरा शरीर हमेशा रहता है।’’ मुन्शी कबरीके का हाथ परे झटकते हुए बोला।
‘‘मुन्शी जी कल का भूखा हूँ ....सुबह से कई बार खाली पेट पानी पी चुका हूँ चक्कर आरहे हैं कुछ खाने को....।’’ कबरीके ने हिम्मत करके धीरे से सच्चाई बखानी। ‘‘हट्ट स्साले....मादर....एक तो काम नहीं पाते हो और जब ढंग का काम मिल जाता है ......तो एक्टिंगबाजी में उतर आते हो...’’इसी समय कोई वी.आई.पी. गाड़ी से उतरा, मुन्शी उन दोनों को आँखें दिखाता हुआ किनारे ओट में खिसक गया।
वह दोनों मुस्तैद खड़े मुन्शी की गालियों का इंतजार करते रहे.....आधा घंटा बीत गया मुन्शी अंदर कहीं फंस गया था.......वापस नहीं लौटा।
‘‘कबरीके बस्स दो घण्टे की बात है, बारह बजे तक छुट्टी मिल जायेगी। हिम्मत रख... फिर भर पेट खाना और कल के लिये कुछ बाँध कर ले भी जाना .......पचास रुपये मिलेंगे, पूरे पचास। दवा-दारू और खर्चे के लिए बहुत हैं...हौसला रख.......थोड़ी देर की ही तो बात है बस्स.......।’’
‘‘भोला भैया.....जब से मुन्शी ने गोली खिलाई है, चक्कर से आ रहे हैं।’’ कबरीके हाँफता-सा बोला।
‘‘खाली पेट गोली नहीं खानी थी.......कितना बड़ा बेवकूफ है तू।’’
‘‘अब क्या बताऊँ भैया....जी मिचला रहा है, पल्टी न हो जाये कहीं.....कुछ खाने को मिल जाता।’’ कबरीके ने अंदर से बाहर आ रही व्यंजनों की सुगंध महसूस करते कहा, फिर सोचने लगा......‘उसे दो कोर चावल या आधी रोटी इस समय खाने को मिल जाये, तो अमृत समान हो जाये’ भूख से उसकी आँतें कुलबुला रही थीं। कमजोरी से या खाली पेट बुखार की दवा खा लेने से उसका सिर घूम रहा था।
विवाह की दावत का भरपूर आनन्द उठा, अपने-अपने परिवार के साथ कोई पान का बीड़ा मुँह में दबाये तो कोई सिगरेट के छल्ले मुँह से निकालता बारात घर के मुख्य द्वार से बाहर निकल रहा था.....तृप्त और प्रसन्न।
कबरीके और भोला की ओर किसी को देखने की कतई फुर्सत-जरूरत नहीं थी। हाँ छोटे बच्चों में से कोई-कोई बच्चा कौतूहलवश होले से उनके दरबान भेषधारी कपड़े छू लेता या भाला पकड़ने की कोशिश करता, भोला अपने चेहरे पर चिपकी नकली मूँछ को ऐसे समय नचा कर बच्चों का थोड़ा बहुत मनोरंजन कर देता। बच्चों के माता-पिता अपने बच्चों को खींच गाड़ी की ओर बढ़ जाते।
कबरीके को कुछ स्वप्न-सा दिखा.....हाँ माँ ही तो है....उसे गोद में लिटाए आँचल से हवाकर कुछ खिला रही है.....माँ श्याम –श्वेत चमड़ी का आधा-पूरा चेहरा..... माँ के चेहरे का असली रंग कौन सा है श्याम या श्वेत?
‘‘अरे! कबरीके! ......भाला हटा........’’ एकाएक तेज आवाज ने कबरीके को स्वप्न से जगा दिया। मुन्शी की कर्कश गर्जना से वह चौंक पड़ा, भाला पकड़ते-हटाते उसकी आँखों के सामने अचानक अँधेरा-सा छाने लगा, वह स्वयं को अपने पैरों पर संभाल न सका और चक्कर आ जाने पर मुख्य द्वार से उसी समय निकल रही एक मोटी-छोटी भद्र महिला से टकराते हुए, उसे साथ लिए फर्श पर भरभराकर गिर पड़ा।
भोला अवाक् रह गया....मुख्य द्वार में हड़बड़ी मच गयी....‘‘क्या हुआ?....क्या हुआ?....मारो....साले को....“ सुनाई देने लगा.....मुन्शी ताबड़तोड़ लात-घूँसों  के साथ कबरीके पर पिल पड़ा।
दो चार भद्रजनों ने भी बेचारे कबरीके के ऊपर अपने हाथ पैर साफ कर लिए।
भोला कबरीके के ऊपर छा-सा गया, कुछ लात घूँसे उसके हिस्से में भी आये...पर शायद देर हो चुकी थी.....भूखा, ज्वरग्रस्त कबरीके आज इतनी मार सह न सका उसके मुँह से फिचकुर छूट गया, नाक से खून बहने लगा। गम्भीर घातक अंदरूनी चोट की वजह से उसे खून की पल्टी हुई, हरी कारपेट का एक घेरा खून से लाल हो उठा। कबरीके ने अन्तिम हिचकी ली और भोला की गोद में दम तोड़ दिया।
भोला ने सुना....कोई मुन्शी को निर्देश दे रहा था, ‘‘लाश को हटाओ जल्दी....ध्यान रहे लड़की की विदाई तक किसी को इस बात की कानोकान खबर नहीं होनी चाहिए...समझे।’’
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