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चोरों का मानवाधिकार [व्यंग्य] - डॉ. सुभाष राय

कला की सार्थकता उसके कला होने मात्र में नहीं बल्कि उसके जीवन और जगत के लिये अर्थपूर्ण होने में होती है। जैसे बाकी की कलाएं हैं, वैसे ही चोरी भी एक कला है। जो इसमें माहिर है, वह आनंद का जीवन व्यतीत कर सकता है। आप इसे यूं भी कह सकते हैं कि जो आनंदमय, सुखमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं, उन्हें यह कला जरूर आती होगी। चौर्यकला का सुघड़ पथ अत्यंत दुर्गम और कंटकाकीर्ण है। इसे हृदयंगम करने के लिये प्रचंड साहस और अकाट्य हिम्मत की जरूरत पड़ती है। आरंभ में कष्ट भी होता है। नौसिखियेपन में कई बार बिन बुलाये मेहमान सी मुश्किलें भी आती है। हर महान काम में कुछ खतरे तो होते ही हैं। खतरे तो उठाने ही पड़ेंगे, अग्निपरीक्षाएं तो देनी ही पड़ेंगीं। पता नहीं क्यों लोग इसे बुरी चीज मानते हैं। पिटाई, बेइज्जती और जेल की पगडंडी से होते हुए जब एक बार आप चौर्य-कला के राजपथ पर आ जायेंगे, तब कोई परेशानी नहीं। इस रास्ते पर चल कर आप कुछ भी बन सकते हैं। डाकू, नेता, मंत्री, लेखक आदि-इत्यादि। अगर आप ने अभी तक चोरी नहीं की तो आप का अब तक का जीवन व्यर्थ गया। मुझे विश्वास नहीं कि चोरी का मौका आप के सामने कभी आया ही न हो। याद कीजिए कभी न कभी कुछ तो चुराया ही होगा। किसी की जेब से पैसा, किसी के बैग या दूकान से कोई कीमती माल, बचपन में मां-बाप से अपनी कापी, पत्नी से अपने विवाहपूर्व प्रेम संबंध, बच्चों से अपनी जेब, अपने बास से अपनी नालायकी। दिमाग पर जोर डालिए, याद आ जायेगा। बचपन में चोर-चोर का खेल तो खेला ही होगा। कुछ नहीं तो जवानी के दिनों में किसी का दिल तो जरूर चुराया होगा। सोचिये क्या कोई ऐसा मौका भी नहीं आया जब लोगों से आप को आंख चुरानी पड़ी हो। जब हमारे परम आराध्य कृष्ण ने माखन चुरा कर खाया तो आप किस खेत की मूली। माखनचोर की कसम, कोई माई का लाल इस जमीं पर तो नहीं मिलेगा, जिसने चोरी की किसी विधा में कभी न कभी हाथ न आजमाया हो।

यह आत्ममंथन का दौर है। देश के सरताज नेताओं को, पटरी से नीचे मुल्क चलाने वाले अफसरों को, ध्वंस के सत्य को जानते हुए भी निरंतर निर्माण करने वाले ठेकेदारों को, खुलेआम दलाल कहे जाने पर परम प्रसन्नता का अनुभव करने वाले बिचौलियों को कोई भी ऐरू-गैरू नत्थू-खैरू झट से चोर कह देता है। यह उचित नहीं जान पड़ता। बिना चोर साबित हुए किसी को चोर आप कैसे कह सकते हैं। जो साबित न हो सके, वह होता कहां है। देश के राजनीतिक दल और हमारी सरकारें इस मर्यादा का पूरा पालन करती हैं। लोगों का क्या, वे तो आसानी से किसी भी नेता को, मंत्री को बेईमान, रिश्वतखोर, चाराचोर, गुंडा, बदमाश कह देते हैं, पर एक जिम्मेदार सरकार को दांये-बांये देखकर चलना होता है। वह बिना जांच-पड़ताल के कुछ नहीं मानती। कोई अदालत में जाना चाहे, जाये। अदालत भी तो जांच के नतीजे ही देखेगी। जैसी जांच होती है, वैसा ही फैसला करना पड़ता है। सरकार में एक से एक चतुरतम लोग होते हैं। जैसे पहले राजा सलाह देने के लिए बुद्धिमान मंत्री रखते थे, वैसे ही आज भी मंत्री होते हैं। वे बुद्धिमान हों न हों, परम कुशल और चतुर सुजान जरूर होते हैं। उन्हें किसी भी मामले की जांच से इनकार नहीं पर वे ऐसी जांच करवाना भी जानते हैं, जो कभी पूरी नहीं होती और अगर किसी दबाव में पूरी करनी भी पड़े तो जिसे सरकार बचाना चाहती है, वह कभी दोषी साबित नहीं होता। इसमें बुराई क्या है। बाहर से इसकी आप चाहे जितनी निंदा कर लें लेकिन सरकार में आने पर आप को जब अपनी जिम्मेदारियों का अहसास होगा, आप भी वैसा ही आचरण करने लगेंगे। अगर आप को मेरी बात पर एतराज है तो आइए हम आप मिल बैठकर चिंतन करें।

चोरी हमारी परम्परा में है, हमारे साहित्य में, हमारी फिल्मों में, हमारे संस्कारों में सर्वत्र विद्यमान है। इतने सारे मुहावरे क्यों रचे गये होते, अगर चोरी पर हमारे पूर्वजों ने गंभीर चिंतन-मनन न किया होता। एक तो चोरी, दूसरे सीनाजोरी, चोर की दाढ़ी में तिनका, उल्टा चोर कोतवाल को डांटे, चोर-चोर मौसेरे भाई, बरियरा चोर सेंध में गावे आदि इत्यादि। बात बहुत साफ है। जबसे इस धरती पर आदमी का अवतरण हुआ है, चोरी का उत्स भी तभी से माना जा सकता है। चोरी नहीं होती तो चोर भी नहीं होते और चोर नहीं होते तो हजारों लोग बेरोजगार होते, अनेक परिवार निष्कर्म आत्मकल्याण से वंचित हो जाते। सोचिये, चोर नहीं होते तो पुलिस की क्या जरूरत होती। वह किसे पकड़ती, कहां से हिस्सा बंटाती, किससे मुखबिरी करवाती, किसको फर्जी गवाह बनाती। आप कह सकते हैं कि पुलिस के पास और भी काम है। सिर्फ चोरों की निगरानी में ही पुलिस थोड़े लगी रहती है। बात बिल्कुल सच है। पुलिस के हाथ में कानून है और सभी जानते हैं कि कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं। इन्हीं लंबे हाथों की बदौलत पुलिस महा सामर्थ्यसम्पन्न है। इसी लाकत से वह ऐसे सारे काम भी कर डालती है, जो उसे कभी सौंपे ही नहीं गये। मसलन किसी को भी पकड़ लाना और गरियाते हुए हवालात में बंद कर देना, किसी पर भी लात-जूते चला देना, अपराधी को छोड़ देना और उसके इशारे पर किसी शरीफ आदमी को धर दबोचना, सरेआम चौराहों पर चौथ वसूलना। ये सारे सबक पुलिस को चोरों से मिले हैं। साथ-संग का असर तो होता ही है। महिमा घटी समुद्र की, रावण बस्यो परोस।

चोर और चोरी हिंदी शब्दकोश के अति मह्त्वपूर्ण शब्द हैं। अंग्रेजों को इसकी महत्ता से मजबूर होकर इसे और इसके कई समानार्थवाची शब्दों को अपने शब्दकोश में शामिल करना पड़ा। लूट, डकैती, ग़ुंडा जैसे शब्ददान के लिये वे चिरकाल तक भारतीयों के आभारी रहेंगे। इसकी विकट अर्थवत्ता का आप को निश्चय ही अनुभव होगा। अपने घर में भी हमें नित्य इसके मूल्यवान होने का पता चलता रहता है। घर में बच्चों से वह हर चीज चुरा कर रखी जाती है, जो वे तोड़ सकते हैं। बच्चा जब बड़ा हो जाता है तो अपनी प्रेयसी को देने के लिए अपनी चोरजेब में फूल चुराकर रखता है। इस चोरजेब का आविष्कार भी किसी गुणी दर्जी ने चोरों से बचने के लिए ही किया होगा। पहले बड़े-बूढ़े जब बाहर सफर पर निकलते थे, तब इसमें पैसे रख लेते थे। आजकल बच्चे जो कपड़े पहनते हैं, उनमें कहां-कहां जेब बनी होती है, न पूछिये। वे मां-बाप की जेबों से चुराये गये पैसे रखने के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं। चोरी जीवन का अनिवार्य तत्व है। अगर चोर अपना धर्म नहीं निभाते, तो इमानदारी का कोई अर्थ ही नहीं होता। चोर हैं तभी साव भी हैं। चोर मिट गये तो साव भी बच नहीं सकेंगे। दोनों का चोली-दामन का सहअस्तित्व है।

चोरों की कई प्रजातियां हैं। उचक्के, उठाईगीर, पाकेटमार, ठग से लेकर डकैत तक चोर के ही तद्भव और तत्सम रूप हैं। चोर में डकैत बनने की हर संभावना मौजूद होती है। यह परम सत्य भी सभी जानते हैं कि किसी भी डकैत के कभी भी वाल्मीकि और संत अंगुलिमाल में बदल जाने की संपूर्ण संभावना होती है। वाल्मीकि ने रामायण की रचना की, पर चोर इतनी जहमत नहीं उठाता। वह किसी की रचना को अपनी बताकर उसको प्रकाशित करवा सकता है, उसका पारिश्रमिक हथिया सकता है। आजकल साहित्य में चोरों की दमदार उपस्थिति दर्ज की जा रही है। कुछ चोर बड़े शायर हो गये हैं तो कुछ बड़े लेखक, कुछ प्रवक्ता तो कुछ प्रोफेसर। आप अगर सचमुच के लेखक हैं, साहित्यकार हैं, शायर हैं, तो आप व्यर्थ का श्रम कर रहे हैं। रात-रात भर पढ़ना और फिर लिखना कितना श्रमसाध्य कर्म है। चोरों के लिए तो बस सधी हुई कैंची या कैमरे की जरूरत होती है और वे बिना मेहनत कहीं से भी कुछ भी टीप कर उसे अपना बना लेते हैं। अब अगर किसी को लगता है कि वह उस रचना का मूल लेखक है तो साबित करे। चोर की क्या गरज, वह तो उसका आनंद उठा ही रहा है।

चोरों पर फिल्मी दुनिया ने गहन काम किया है। तमाम फिल्में बना डाली। चोरी-चोरी, चोरी और बरजोरी, चोरी-चोरी चुपके-चुपके। पहले की फिल्मों में चोरी से नायिकाओं को देखने और उनका दिल चुराने की घटनाएं आम थीं पर अब नायिकाएं चूंकि दिल छिपाकर रखती ही नहीं, इसलिए अक्सर उन्हें अपहरण, डकैती और बलात्कार का सामना करना पड़ता है। फिल्म, संगीत की दुनिया में गीत, कहानियां और विदेशी फिल्मों की थीम चुराने का प्रचलन बढ़ा है। ऐसी चोरी के बाद फिल्मकार, गीतकार सीनाजोरी भी करते हैं। चौर्य कर्म ने लेखकों को भी बहुत आकर्षित किया है। पेंगुइन से चोर-पुराण प्रकाशित हो चुका है। चोरों पर अनेक कहानियां लिखी गयी है। प्रचुर लेखन के बावजूद चोर-चिंतन के लिए अभी भी भारी गुंजाइश बनी हुई है। चोर आपस में एक दूसरे का बहुत ध्यान रखते हैं। अपने पेशे में सचाई और ईमानदारी बरतते हैं। लाख पिटने के बाद भी कोई चोर दूसरे चोर का भेद जल्दी नहीं खोलता है। शायद इसीलिए यह मुहावरा प्रचलन में आया होगा-चोर चोर मौसेरे भाई। चाहे हमारे समाज ने अपनी मर्यादा भले खो दी हो, हमारे सत्ता नायक भले ही जीवन में किसी तरह की ईमानदारी न बरतते हों, पर चोरों के समाज में उनका अपना चरित्र कायम है। उनका भविष्य उज्ज्वल है। अब धीरे-धीरे चोरी को लोग अपना अधिकार मानने लगे हैं। अपना देश कामन वेल्थ की अवधारणा पर आगे बढ़ रहा है। देश का वेल्थ कामन है, धन पर सबका अधिकार है। जहां मौका मिले, मिल-बांटकर खाओ, खिलाओ, बचे तो घर ले जाओ। हमारी सरकारें आतंकवादियों के मानवाधिकारों पर सजग हुईं हैं, इससे उम्मीद बंधी है कि चोरों के मानवाधिकार को भी जल्द ही मान्यता मिल जायेगी।

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डा. सुभाष राय
ए-१५८, एम आई जी, शास्त्रीपुरम, बोदला रोड, आगरा

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14 टिप्पणियाँ

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  2. मारक व्यंग्य है

    यह आत्ममंथन का दौर है। देश के सरताज नेताओं को, पटरी से नीचे मुल्क चलाने वाले अफसरों को, ध्वंस के सत्य को जानते हुए भी निरंतर निर्माण करने वाले ठेकेदारों को, खुलेआम दलाल कहे जाने पर परम प्रसन्नता का अनुभव करने वाले बिचौलियों को कोई भी
    ऐरू-गैरू नत्थू-खैरू झट से चोर कह देता है। यह उचित नहीं जान पड़ता। बिना चोर साबित हुए किसी को चोर आप कैसे कह सकते हैं। जो साबित न हो सके, वह होता कहां है। देश के राजनीतिक दल और हमारी सरकारें इस मर्यादा का पूरा पालन करती हैं। लोगों का क्या, वे तो आसानी से किसी भी नेता को, मंत्री को बेईमान, रिश्वतखोर, चाराचोर, गुंडा, बदमाश कह देते हैं, पर एक जिम्मेदार सरकार को दांये-बांये देखकर चलना होता है। वह बिना जांच-पड़ताल के कुछ नहीं मानती। कोई अदालत में जाना चाहे, जाये।

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  3. सुभाष ही आपसे सहमत हूँ कि चोरों के मानवाधिकार को भी जल्द ही मान्यता मिल जायेगी।

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  4. व्यंग्य गुदगुदाता भी है और वर्तमान हालात पर दुख से भी भर देता है।

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  5. chaur kla ka sundr v vishd vrnn
    stik v mark vyng hai
    bahut 2 hardik bdhai

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  6. होने ही चाहिये चोरों के मानवधिकार बल्कि केवल उनके ही होने चाहिये :)

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  7. आदर्णीय सुभाष जी,

    रोचक तथा तीक्ष्ण प्रहार करने मे सक्षम आपके आलेख की अपनी पसंद की पंक्तियाँ उद्धरित कर रहा हूँ -

    "आप इसे यूं भी कह सकते हैं कि जो आनंदमय, सुखमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं, उन्हें यह कला जरूर आती होगी। चौर्यकला का सुघड़ पथ अत्यंत दुर्गम और कंटकाकीर्ण है।"

    " देश के सरताज नेताओं को, पटरी से नीचे मुल्क चलाने वाले अफसरों को, ध्वंस के सत्य को जानते हुए भी निरंतर निर्माण करने वाले ठेकेदारों को, खुलेआम दलाल कहे जाने पर परम प्रसन्नता का अनुभव करने वाले बिचौलियों को कोई भी ऐरू-गैरू नत्थू-खैरू झट से चोर कह देता है।"

    " चाहे हमारे समाज ने अपनी मर्यादा भले खो दी हो, हमारे सत्ता नायक भले ही जीवन में किसी तरह की ईमानदारी न बरतते हों, पर चोरों के समाज में उनका अपना चरित्र कायम है। उनका भविष्य उज्ज्वल है। अब धीरे-धीरे चोरी को लोग अपना अधिकार मानने लगे हैं। अपना देश कामन वेल्थ की अवधारणा पर आगे बढ़ रहा है। देश का वेल्थ कामन है, धन पर सबका अधिकार है। जहां मौका मिले, मिल-बांटकर खाओ, खिलाओ, बचे तो घर ले जाओ। हमारी सरकारें आतंकवादियों के मानवाधिकारों पर सजग हुईं हैं, इससे उम्मीद बंधी है कि चोरों के मानवाधिकार को भी जल्द ही मान्यता मिल जायेगी। "

    सशक्त व्यंग्य प्रस्तुति के लिये आपका आभार।

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  8. वक्त जरूरत बहुत काम आने वाली बात बताई आपने... हम भी जरूरत पडी तो इसका प्रयोग करेंगे

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  9. मोहिन्दर जी से सहमत। आप कहें तो चोरों को मानवाधिकार दिलाने के लिये आन्दोलन चलाया जाये।

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