रात के लगभग नौ बजने पर थे; मुझे इस बार डोकरीघाट पारा की वह गली अपरिचित सी लगी। उन दिनों वह खपरैल का मकान हुआ करता था जिसकी दीवारे पक्की थीं। बाहर तब भी वही चिरपरिचित बोर्ड लगा था जो आज भी है – कवि निवास। अब एक आलीशान मकान सम्मुख था जिसके मुख्य द्वार से हो कर हम भीतर प्रविष्ठ हुए। बाई ओर ही एक कक्ष था जिसमें एक खाट बिछी हुई थी जिसके गिर्द मच्छरदानी अभी भी कसी हुई थी। कमरे के बीचोबीच एक कुर्सी पर विचारमग्न सा दण्डकारण्य का संत बैठा हुआ था। सामने ही एक पोर्टेबल रंगीन टेलिविजन था जिसपर 'ई.टी.वी – छत्तीसगढ' ससमाचार चैनल चल रहा था, समाचार फ्लैश हो रहा था - नक्सलवादियों नें एक ग्राम सरपंच की मुखबिरी के आरोप में हत्या कर दी है। संभवत: इस समाचार की वेदना उनके चेहरे पर थी। लाला जी को यह महसूस करने में समय लगा कि हम उनके कक्ष के भीतर प्रविष्ठ हो गये हैं। मैंने लाला जी के चरण स्पर्श किये। लाला जगदलपुरी जी से लगभग अठ्ठारह वर्ष के अंतराल के बाद मुलाकात हो रही थी।
“तुम राजीव रंजन हो न?” लाला जी की आँखें मेरे चेहरे पर गडीं वे बहुत गौर से मुझे देख रहे थे। उनके द्वारा पहचाना जाना ही मेरे लिये उपलब्धि था और मेरे लिये सर्वदा स्मरण रहने वाला सुखद अहसास। तीन अवसर एसे हैं जिनमें लाला जी के सम्मुख काव्यपाठ करने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ है। जगदलपुर में रह कर अपने स्नातक अध्ययन के तीन वर्षों में मैं प्राय: कवि निवास जाया करता था और लाला जी से कविता, साहित्य, संस्कृति, इतिहास और बस्तर जैसे विषयों पर बाते होती थीं। उनके अनुभवों नें “बस्तर” को ले कर मुझे एक नयी दृष्टि दी।
यह मेरी खुशकिस्मती है कि मैं लाला जगदलपुरी के युग में पैदा हुआ और बस्तर की मिट्टी मेरी मातृभूमि है; लाला जगदलपुरी जिसकी अमिट पहचान हैं। 91वे वर्षीय लाला जी एक व्यक्ति नहीं विरासत हैं उनसे इस बार मुलाकात करने की सुखानुभूति को अभिव्यक्त करने के लिये मेरे पास शब्दों का अभाव है।
उम्र के इस पडाव पर लाला जी की आँखें कमजोर हो गयी हैं कानों से अब सुना नहीं जाता यहाँ तक कि चाल भी मद्धम हो गयी है लेकिन उनके चेहरे की तेजस्विता में कहीं कोई कमीं नहीं आयी है। वे आज भी पढ रहे हैं और वे आज भी लिख रहे हैं। लाला जी से इन दिनों संवाद स्थापित करना आसान नहीं है, उन्हें प्रश्न लिख कर देने होते हैं जिन्हें पढ, समझ कर वे प्रत्युत्तर देते हैं। लाला जी से बातचीत के आरंभ में अतीत की अनेकों बाते हुईं। लाला जी नें अपनी अवस्था के कारण सृजन में होने वाली तकलीफों के विषय में बताया। लाला जी का बहुतायत सृजन अभी भी अप्रकाशित है और यह इस पीढी की अकर्मण्यता है कि कोई एसी पहल नहीं हो रही कि इस युगपुरुष की रचनाओं का संकलन उपलब्ध हो तथा पूर्वप्रकाशित पुस्तकों के नवीन संस्करण निकलें। लाला जगदलपुरी न केवल हिन्दी अपितु बस्तर की सभी क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के भी विद्वान हैं। उनके कई काव्य संग्रह हलबी, गोंडी, भतरी, छतीसगढी रचनाओं के संकलन हैं। लाला जी का बहुचर्चित हिन्दी गज़ल संग्रह “मिमियाती जिन्दगी दहाडते परिवेश” उस समय में प्रकाशित हुआ था जब कि ग़ज़ल को हिन्दी की विधा बनाये जाने की सोच भी विकसित नहीं हुई थी। यह पुस्तक अब दुर्लभ है।
लाला जी को मैने साहित्य शिल्पी ई-पत्रिका दिखाई तथा इंटरनेट पर हिन्दी के लिये इस पत्रिका द्वारा किये जा रहे प्रयासों से अवगत कराया। मैं साहित्यशिल्पी पर लाला जी की रचनाओं और कार्यों का संकलन उपलब्ध कराने के लिये प्रयासरत हूँ।
लाला जी से उनके गजल संग्रह की उनके पास इकलौती उपलब्ध प्रति जो मुझे उनके भाई तथा साहित्यकार श्री के. एल. श्रीवास्तव के माध्यम से प्राप्त हुई, की दशा देख कर मन में कसक सी हुई। इस पुस्तक को तीन ओर से चूहों नें कुतर लिया था। सौभाग्यवश इस पुस्तक की छायाप्रति मैने करा ली है तथा अब साहित्यशिल्पी के माध्यम से नीयमित रूप लाला जगदलपुरी की रचनाओं को इंटरनेट माध्यम पर संग्रहित किया जा सकेगा। मेरा प्रयास होगा की उनकी संपूर्ण रचनावली “साहित्य शिल्पी” एवं “कविता कोष” पर उपलब्ध हो सके।
लाला जी नें मुझे बताया कि वे अब साक्षात्कार नहीं देते किंतु संभवत: मेरे प्रति उनके स्नेह के वशीभूत वे साक्षात्कार देने के लिये सहमत हो गये। मैंने उन्हें एक प्रश्नावली दी और लाला जी नें संभवत: रात्रि में ही उन प्रश्नों के उत्तर तैय्यार कर लिये थे। अगली सुबह जब हम पुन: लाला जी से मिले और उन्होंने प्रश्नों के लिखित उत्तर मुझे प्रदान कर दिये। काँपते हाँथों से लिखे गये लाला जी के अक्षर अब भी मोती जैसे हैं।
लाला जी का यह साक्षात्कार प्रस्तुत करने से पूर्व मैं कुछ प्रश्न भी सामने रखना चाहता हूँ। इन दिनों इंटरनेट पर 'बस्तर' टाईप करते ही अनेको ‘सूरदास विशेषज्ञों’ की निगाह से बस्तर दिखाई पडता है। कोई लेखक यहाँ गुंडाधुर की तलाश करता हुआ आता है और माओवादियों को बस्तर का चेहरा बता कर चला जाता है। किसी की फंतासी आउटलुक जैसी पत्रिका में इस तरह छपती हैं जैसे बस्तर केवल बंदूख हो, बारूद हो, मुर्दनगी हो? मैं बस्तरिया भला गूढ गूढ बातों से क्या बूझूं क्रांति-वांति, अमाजवाद-समाजवाद? मुझ अबूझ की बचपन से पहुँच उस गुड तक अवश्य थी जो लालाजी के शब्द हैं। मैं मानता हूँ कि दिल्ली, वर्धा, इन्दौर या कोलकाता से ‘बस्तर’ दिखता होगा, दिखना भी चाहिये। लेकिन अगर आप लाला जगदलपुरी को नहीं जाने तो आप मुक्तिबोध को भी नहीं जानते, तो आप नागार्जुन को भी नहीं जानते और आप निराला को भी नहीं जानते और आप बस्तर को भी यकीनन नहीं जानते।
आज कौन गिनना चाहता है कि कितने लोकगीत हैं जो लाला जी नें लिखे है और वो मांदर की थाप के साथ गूंजती लयबद्ध स्वरलहरियाँ बन आदिम समाज का अभिन्न हिस्सा हो गये हैं। साहित्य के विशेषज्ञ हिन्दी और उर्दू की ग़ज़लों के बहस में उलझे फिरते हैं और इधर खामोशी से यह बस्तरिया कवि हलबी और भतरी जैसी आदिम भाषाओं में मानक ग़ज़लें उनके लिये कहता रहा है जिनके कंधे पर तूम्बा टंगा है और कमर में लुंगी भर है। वह उनका जीवन जीता है और गाता है।
'हलबी' बोली में उनकी ग़ज़ल की कुछ पंक्तियाँ –
धुँगिया दिया एहो कनकचुडीधान लसलसा डँडिक गोठेयाऊँ।आजी काय साग खादलास तुमीसाँगुन दिया डँडिक गोठेयाऊँ।
[अनुवाद: - ओ कनकचुडी धान की लहलहाती फसल, आओ थोडी देर बतिया लें। यह तो बताओ कि आज तुमने कौन सा साग खाया? आओ बैठो, थोडे देर बतिया लें]
एक 'भतरी' बोली में कविता को देखें –
आमी खेतेआर, मसागत आमरआमी भुतिआर, मसागत आमरगभार-धार, मसागत आमरनाँगर-फार, मसागत आमरधान-धन के नँगायला पुटकाहईं सौकार, मसागत आमर
[अनुवाद:- हम खेतीहर, मशक्कत हमारी, हम मजदूर मशक्कत हमारी। गभार हो या धार, मशक्कत हमारी। हल-फाल, मशक्कत हमारी। धान-धन को हडप गया ‘पुटका’, वही हो गया साहूकार मशक्कत हमारी]
शानी और धनन्जय वर्मा जैसे साहित्यकार अपनी लेखनी के पीछे लाला जी की प्रेरणा मानते हैं। लाला जी बस्तर के इतिहास का भी हिस्सा है और हमारा सौभाग्य है कि वे अभी हमारे बीच हैं। कुछ दिनों पहले तक मुझे इस बात की गहरी पीडा थी कि लाला जी को अब तक पद्मश्री या पद्मविभूषण क्यों नहीं दिया गया? अब मैं मानता हूँ कि लाला जी का व्यक्तित्व और कार्य किसी भी पुरस्कार या सम्मान से आगे निकल गया हैं। बस्तरिया होने में जो गर्व का अहसास है उसका पहला कारण हैं – लाला जगदलपुरी।
[एक पहलू यह भी: - मैं एक प्रश्नावली ले कर इस दशहरे के दौरान पूरे एक सप्ताह तक सुकमा-बैलाडिला से ले कर नारायणपुर-कांकेर तक घूमता रहा। बस्तर में लाला जगदलपुरी को जानने वाले मुझे 84 प्रतिशत लोग मिले जबकि प्रधानमंत्री को जानने वाले 52 प्रतिशत, अरुन्धति को जानने वाले महज 1.2 प्रतिशत तथा महाश्वेता को जानने वाले 0.5% लोग ही मिले। इस सर्वे में मैने पढे लिखे तथा ग्रामीण आदिवासियों के समान रूप से सौ-सौ सेम्पल लिये थे। इस सर्वे के परिणाम स्वयं ही बहुत कुछ कहते हैं।]
प्रस्तुत है लाला जगदलपुरी से बातचीत: -
राजीव रंजन: लाला जी, उम्र के इस पडाव पर आप अब तक के अपने साहित्यिक-लेखकीय कार्यों को किस प्रकार मूल्यांकित करते हैं?
लाला जगदलपुरी: मैं अपने साहित्यिक-लेखकीय कार्यों को लगभग 91 वर्ष की आयु में भी किसी हद तक अपने ढंग से निभाता ही चला आ रहा हूँ, जबकि वृद्धावस्था का प्रभाव मन, मस्तिष्क और शरीर की सक्षमता को पहले की तरह अनुकूल नहीं रख पाता। फिर भी मैं किसी तरह स्वाध्याय और लेखन से जुडा हुआ हूँ।
राजीव रंजन: बस्तर की कविता का पर्याय लाला जगदलपुरी को ही माना जाता रहा है। एक युग जिसमें आप स्वयं, शानी जी तथा धनंजय वर्मा जी आदि का लेखन सम्मिलित है और दूसरा बस्तर का वर्तमान साहित्यिक परिवेश, क्या आप इन दोनों युगों में कोई अंतर पाते हैं?
लाला जगदलपुरी: बस्तर से मेरा जन्मजात संबंध स्थापित है, इस लिये साहित्य की विभिन्न विधाओं में बस्तर को मैनें भावनात्मक-अभिव्यक्तियाँ दे रखी हैं। साथ-साथ शोधात्मक भी। वैसे, मेरी मूल विधा तो काव्य ही है।
बस्तर के धनन्जय वर्मा और शानी अपने लेखन-प्रकाशन को ले कर हिन्दी साहित्य में अखिल भारतीय स्तर पर चर्चित होते चले आ रहे हैं। बस्तर के लिये यह गौरव का विषय है।
बस्तर का वर्तमान साहित्यिक परिवेश, वर्तमान की तरह तो चल रहा है परंतु इस परिवेश में लेखन-प्रकाशन से सम्बद्ध इक्के-दुक्के साहित्यकार ही प्रसंशनीय हो पाये हैं।
राजीव रंजन: बस्तर के साहित्य, इतिहास, संस्कृति, पर्यटन जैसे अनेकों विषयों पर आपनें उल्लेखनीय कार्य किया है। आपके कार्यों और पुस्तकों को बस्तर के हर प्रकार के अध्ययन व शोध के लिये मानक माना जाता है। आप संतुष्ट है अथवा अभी अपने कार्यों को पूर्ण नहीं मानते?
लाला जगदलपुरी: जहाँ तक हो सका मैनें बस्तर पर केन्द्रित विभिन्न विषयक लेखन-प्रकाशन को अपने ढंग से अंजाम दिया है। अपनी लेखकीय सामर्थ्य के अनुसार निश्चय ही बस्तर सम्बंधी अपने लेखन-प्रकाशन से मुझे आत्मतुष्टि मिली है। मेरे पाठक भी मेरे लेखन की आवश्यकता महसूस करते हैं।
राजीव रंजन: आपने बस्तर में राजतंत्र और प्रजातंत्र दोनो ही व्यवस्थायें देखीं है। बस्तर के आम आदमी को केन्द्र में रख कर इन दोनों ही व्यवस्थाओं में आप क्या अंतर महसूस करते हैं?
लाला जगदलपुरी: बस्तर में प्रजातांत्रिक गतिविधियाँ केवल प्रदर्शित होती चली आ रही हैं, किंतु बस्तर के लोकमानस में पूर्णत: आज भी राजतंत्र स्थापित है। “बस्तर दशहरा” शीर्षक की एक कविता की उल्लेखनीय पंक्तियाँ साक्षी हैं –
पेड कट कट करकहाँ के कहाँ चले गयेपर फूल रथ/ रैनी रथ/ हर रथजहाँ का वहीं खडा हैअपने विशालकाय रथ के सामनेरह गये बौने के बौनेरथ निर्माता बस्तर केऔर खिंचाव में हैंप्रजातंत्र के हाँथोंछत्रपति रथ कीराजसी रस्सियाँ”
राजीव रंजन: इन दिनों बस्तर में बारूद की गंध महसूस की जाने लगी हैं। इस क्षेत्र के वरिष्ठतम बुद्धिजीवी होने के नाते आपसे बस्तर अंचल में जारी नक्सल आतंक पर विचार जानना चाहूंगा।
लाला जगदलपुरी: बस्तर में नक्सली आतंक की भयानकता का मैं कट्टर विरोधी हूँ। नक्सली भी यदि मनुष्य ही हैं तो उन्हें मनुष्यता का मार्ग ग्रहण करना चाहिये।
राजीव रंजन: विचारधारा और साहित्य के अंतर्सम्बंध को आप किस दृष्टि से देखते हैं?
लाला जगदलपुरी: विचारधारा और साहित्य के अनिवार्य सम्बंध को मैं मानवीय दृष्टि से महसूस करता ही आ रहा हूँ।
राजीव रंजन: क्या आप मानते हैं कि आज पाठक धीरे धीरे कविता से दूर जा रहा है? इसके आप क्या कारण मानते हैं?
लाला जगदलपुरी: कविता स्वभावत: भावना प्रधान होती है, किंतु आज के अधिकांश व्यक्ति भावुकता से तालमेल नहीं बिठा पाते। इसी कारण कविता से आम पाठक दूर होते जा रहे हैं।
राजीव रंजन: इन दिनों आप क्या और किन विषयों पर लिख रहे हैं?
लाला जगदलपुरी: इन दिनों मेरा लेखन सीमित हो गया है। वयात्मक दृष्टि और शारीरिक दुर्बलता इसके प्रमुख कारण हैं। फिर भी कुछ न कुछ लिखता ही रहता हूँ। बिना लिखे रहा नहीं जाता।
राजीव रंजन: आपका संदेश?
लाला जगदलपुरी: मेरी हार्दिक इच्छा है कि कविता के प्रति पाठकों में अभिरुचि उत्पन्न हो।
लाला जगदलपुरी जी का हस्तलिखित साक्षात्कार और हस्ताक्षर भी प्रस्तुत है। इसे स्पष्ट देखने के लिये नीचे दिये गये चित्रों पर क्लिक करें: -
43 टिप्पणियाँ
लाला जगदलपुरी के विचारों को जानना अच्छा लगा। इस उम्र में भी लाला जगदलपुरी की सक्रियता और उनके विचारों को जान कर अभिभूत हुई। इस महान साहित्यकार को प्रणाम। वो केवल बस्तर के ही नहीं देश की धरोहर हैं।
जवाब देंहटाएंएक अनुभवी और भरे हुए व्यक्ति का साहित्यकार है। छोटे छोटे उत्तरों में बहुत बडे बडे संदेश हैं। नक्सलियों को लाला जगदलपुरी की अपील में एक विचारक की सोच है कि - बस्तर में नक्सली आतंक की भयानकता का मैं कट्टर विरोधी हूँ। नक्सली भी यदि मनुष्य ही हैं तो उन्हें मनुष्यता का मार्ग ग्रहण करना चाहिये।
जवाब देंहटाएंलाला जगदलपुरी के इस साक्षात्कार के लिये धन्यवाद।
Good work done by Rajive. Thanks for interview.
जवाब देंहटाएंलाला जगदलपुरी एक महान और वरिष्ठ साहित्यकार हैं!
जवाब देंहटाएं--
आप पर उनकी छत्रछाया है तभी तो आशीर्वादस्वरूप उन्होंने आपको विस्तार से सब कुछ बताया है!
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यह साक्षात्कार पाकर हम भी धन्य हो गये!
लाला जगदलपुरी जी इस उम्र में भी सक्रिय हैं ...ये जानकर अच्छा लगा...
जवाब देंहटाएंउनके बारे में जानकर उन्हें और अधिक पढ़ने की इच्छा है...
बढ़िया साक्षात्कार
लाला जगदलपुरी जैसे साहित्यकार पुरस्कारों और सम्मान से बहुत उपर हैं सवाल ये है कि क्या पुरस्कार और सम्मान कोई मायने रखते हैं?
जवाब देंहटाएं**
जिस व्यक्ति की रचना की पहुँच वहाँ तक हो जिसके पास पहला और आखिरी कपडा उसकी लंगोट है उससे बडा जनपक्षधर साहित्यकार हो ही नहीं सकता।
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मैं बस्तर घूमना चाहता हूँ और अब एक कारण ये है कि लाला जगदलपुरी के पैर छू सकूं।
nice & thanks
जवाब देंहटाएं-Alok Kataria
राजीव, साक्षात्कार ही नहीं तस्वीरें भी ऐतिहासिक हैं। नकली पृष्ठभूमि ने में असली आदमी।
जवाब देंहटाएंराजीवजी,
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार।
एक महान साहित्यकार से परिचित कराने के लिए सादर आभार। हमें ऐसा लगा कि लाला जगदलपुरी साहब से हम खुद ही मुखातिब हैं। बहुत ही सुंदर प्रस्तुति।
यह साक्षात्कार, साक्षात्कार की सारी खूबियों से ओत-प्रोत है। सुंदरतम।। सादर।।
बहुत अच्छा साक्षात्कार, बधाई।
जवाब देंहटाएंRajeev ji aapka prayaas sarahaneeya hai... Vibhutiyon ko khoj kar le aanaa aur unhe...prastut karna... bahut khoob...
जवाब देंहटाएंपहले सबको सब याद रहता था
जवाब देंहटाएंअब हम सब सब भूल जाते हैं
कई बार जान बूझ कर
कई बार बिना बूझे
पर यह बूझना
है उलझना
हम कब सुलझेंगे
नहीं समझेंगे
पर हमें समझना चाहिए
जो सिखला रहे हैं
सब समझना चाहिए।
राजीव जी आपकी इस मुलाकात ने वास्तव में प्रत्येक जन के मन में रंजन कर दिया है।
सिनेमा का बाजार और बाजार में सिनेमा : गोवा से
'ईस्ट इज ईस्ट' के बाद अब 'वेस्ट इज वेस्ट' : गोवा से
ऊंट घोड़े अमेरिका जा रहे हैं हिन्दी ब्लॉगिंग सीखने
‘ग्रासरूट से ग्लैमर’ की यात्रा : ममता बैनर्जी ने किया 41वें भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह का शुभारंभ : गोवा से अजित राय
बहुत चिंतित है ब्लु लाइन बसे
शनिवार को गोवा में ब्लॉगर मिलन और रविवार को रोहतक में इंटरनेशनल ब्लॉगर सम्मेलन
बहुत बहुत धन्यवाद राजीव जी।
जवाब देंहटाएंइस साक्षात्कार में सोचने विचारने वाले कई विन्दु है लेकिन सबसे बडी बात है कि असल साहित्यकार के स्वरूप और संघर्ष दोनो की झलकी मिलती है।
जवाब देंहटाएंलाला जी का यह साक्षात्कार हिन्दी सहित्य की अमूल्य ध्ररोहर है, लाला जी के विच्रारों को आपने लोगों तक पहुन्चाया धन्यवाद
जवाब देंहटाएंलाला जगदलपुरी जी का कृतित्व भारतीय साहित्य की अमूल्य धरोहर है। एसे युगपुरुष साहित्य मानीषी से इस साक्षात्कार के माध्यम से मिलना, उनके विचारों को जानना अपने आप में एक विलक्षण अनुभूति है। नक्सलवाद प्रेरित आतंकवाद के संदर्भ में उनके विचार बहुत कुछ सोचने पर विवश करते हैं।
जवाब देंहटाएंलाला जगदलपुरी का साक्षात्कार पढ कर उनके लिये आदर का भाव उठता है वो किसी के भी आदर्श हो सकते हैं। उनके विचारों पर विचार होना चाहिये। राजीव जी आपका सर्वे भी बहुत कुछ कहता है।
जवाब देंहटाएंलाला जगदलपुरी एक महान और वरिष्ठ साहित्यकार हैं!उनके बारे मे जानकर अच्छा लगा । उनके विचार सहेजने योग्य हैं उम्र के इस दौर मे भी इतनी कर्मठता ----------शत शत नमन है।
जवाब देंहटाएंलाला जगदलपुरी को पढने और उनको सुनने का भी मुझे सुख मिला है। मैं राजीव जी के लिखे एक एक शब्द से सहमत हूँ। यह हमारे तंत्र का खोखला पन है कि सम्मान और पुरस्कार को बाजार में सजा दिया है। लाला जगदलपुरी किसी भी सरकारी सम्मान से बडे हैं।
जवाब देंहटाएंराजीव जी आप के इस साक्षात्कार ने मुझे आज बहुत कुछ सिखाया है | भीतर से समृद्ध कर दिया है | एक उस वरिष्ठ साहित्यकार से परिचय करवाया है,जिनके बारे में मैं इतना नहीं जानती थी , जितना अब जान पाई हूँ | आप का साक्षात्कार पढ़ कर उनके प्रति आदर , मान- सम्मान और भी बढ़ गया है, वे सचमुच किसी भी लेखक के आदर्श हो सकते हैं। उनकी कर्मठता, सादगी, उनका लेखन जन मानस के हृदय में वास करता है, यही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि और सम्मान है ।
जवाब देंहटाएंसुधा ओम ढींगरा
लाला जी के संबंध में राजीव जी की दृष्टि और साक्षात्कार को पढ़ना अच्छा लगा, लाला जी के संबंध में उनके शब्द 'अगर आप लाला जगदलपुरी को नहीं जाने तो आप मुक्तिबोध को भी नहीं जानते, तो आप नागार्जुन को भी नहीं जानते और आप निराला को भी नहीं जानते और आप बस्तर को भी यकीनन नहीं जानते।' सौ प्रतिशत सत्य है, एक कड़ुआ सच। हिन्दी साहित्य जगत नें लाला जी को बिसरा दिया इसका हमें उतना मलाल नहीं किन्तु जिस प्रदेश में इस महान संत नें साहित्य सृजन किया उस प्रदेश नें भी सदैव इनकी उपेक्षा की। सहृदयी लाला जी को इस बात से कोई मलाल नहीं किन्तु हमें है, बस्तर-बस्तर का ढोल पीटने वालों नें जानबूझकर लाला जी को हासिये में डाला और उनका सरल स्वभाव साहित्तिक-बौद्धिक राजनीति का शिकार होता रहा।
जवाब देंहटाएंछत्तीसगढ़ में लाला जी के इस हालात पर मुह खोलने वाले बहुत कम लोग है किन्तु जो हैं वे काफ़ी तल्खी से अपनी वेदना व्यक्त करते हैं, यह भाव उनके लाला जी के प्रति अगाध श्रद्धा को दर्शाता है जिसमें से राजीव जी भी एक रहे हैं, मैं राजीव जी को अपनी भावनाओं के साथ खड़ा पाकर मुदित होता हूं कि यद्धपि हम लाला जी को यथेष्ठ सम्मान ना दिला पायें किन्तु उन्हें अंधेरे में रखने वालों के विरूद्ध एवं व्यवस्था के विरूद्ध बोलने का हक तो है हमें। लाला जी के इस हालात पर व्यवस्था के विरूद्ध बोलने वालों में मुझे भोपाल से प्रकाशित सम-सामयिक चेतना की छंद-धर्मी पत्रिका संकल्परथ के वयोवृद्ध संपादक श्री राम अधीर हमेशा याद आते हैं। लाला जी, बस्तर और छत्तीसगढ़ को बूझने का यत्न करने वालों एवं बूझ कर भी भुला देने वालों के लिये 'संकल्परथ' के लाला जगदलपुरी अंक के संपादकीय के कुछ अंश को दस्तावेजी साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूं, यथा -
संकल्प रथ जानता है कि लालाजी के नाम पर या उनके सूत्रों को हथिया कर कितने ही लोग बस्तर की संस्कृति, कला-लोक जीवन के महानतम विशेषज्ञ बन गये। आज खम ठोककर दावा यह कि उनसे बड़ा पांचवा सवार कोई और नहीं है, अगर उनका वश चले तो शायद वह यह भी प्रमाणित कर देंगें कि एक जमाने में सारी दुनिया ही बस्तर में थी जिसकी खोज उन्होंनें की है। जबकि बस्तर के आदिवासियों की सामान्य और असामान्य जीवन-शैली को लाला जी नें जितना करीब से देखा-अनुभव किया ये तथाकथित कला-संस्कृति के ठेकेदार एक पासंग में नहीं बैठते। जब म.प्र. का एक हिस्सा था छत्तीसगढ़, तब 000000 जैसे पूंजीवादी कम्युनिस्टों नें छत्तीसगढ़ को विशेषकर बस्तर को खूब भुनाया और समग्र सुविधाओं का दुरूपयोग किया। आदिवासी बाजारों-हाटों में जाकर या भोपाल के लोक-रंग के चार दिवसीय आयोजन में आकर डेरा लगाकर रहने वाले 000000 नें बहुत ही सस्ते दामों में आदिवासी कलाकृतियॉं खरीदकर अपना संग्रहालय बना लिया। यह काम तो कोई भी कर सकता है, केवल धन होना चाहिए। सच यह है कि 000000 नें जो कुछ लिखा है- उसकी मौलिकता का स्त्रोत लालाजी के पास है, हम जानते हैं उनका अपना मौलिक कुछ नहीं।
वास्तव में यह सब गुटबंदी के कारण होता है, फिर म.प्र. की सरकार का संस्कृति विभाग खासतौर पर म.प्र.आदिवासी लोक-कला परिषद 000000 को इलिये भी सिर पर बिठाती रही कि वह स्वयं को श्री अशोक बाजपेयी का खास आदमी बताते रहे। हम तो एक सवाल करते हैं कि छत्तीसगढि़यों को नासमझ करार देने वाले इस तथाकथित कम्युनिस्ट नें क्या कभी किसी छत्तीसगढि़या की सहायता की है, उनके हलकेपन का एक उदाहरण दे रहा हूं - एक बार मैं और 000000 एक दुकान में बैठे थे, वहां एक छत्तीसगढी महिला भीख का कटोरा लेकर आई। उसे इस महान साम्यवादी नें दिया तो कुछ नहीं अलबत्ता उसे दुत्कार कर भगा दिया और बाद में टिप्पणी की कि 'ये छत्तीसगढि़या अपने कर्मों का फल भुगत रहे हैं।'
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं.......लाला जी का यह साक्षात्कार प्रस्तुत करने से पूर्व मैं कुछ प्रश्न भी सामने रखना चाहता हूँ। इन दिनों इंटरनेट पर 'बस्तर' टाईप करते ही अनेको ‘सूरदास विशेषज्ञों’ की निगाह से बस्तर दिखाई पडता है। कोई लेखक यहाँ गुंडाधुर की तलाश करता हुआ आता है और माओवादियों को बस्तर का चेहरा बता कर चला जाता है। किसी की फंतासी आउटलुक जैसी पत्रिका में इस तरह छपती हैं जैसे बस्तर केवल बंदूख हो, बारूद हो, मुर्दनगी हो? मैं बस्तरिया भला गूढ गूढ बातों से क्या बूझूं क्रांति-वांति, अमाजवाद-समाजवाद? मुझ अबूझ की बचपन से पहुँच उस गुड तक अवश्य थी जो लालाजी के शब्द हैं। मैं मानता हूँ कि दिल्ली, वर्धा, इन्दौर या कोलकाता से ‘बस्तर’ दिखता होगा, दिखना भी चाहिये। लेकिन अगर आप लाला जगदलपुरी को नहीं जाने तो आप मुक्तिबोध को भी नहीं जानते, तो आप नागार्जुन को भी नहीं जानते और आप निराला को भी नहीं जानते और आप बस्तर को भी यकीनन नहीं जानते।
जवाब देंहटाएंमित्रवर राजीव जी मैं इस पल आपके शब्दों के माध्यम से लाला जी के दर्शन करने का प्रयत्न्न कर रहा हूं साथ ही आपके साथ न होने का अफसोस भी अनुभव कर रहा हूं. नि:संदेह आप सौभाग्यशाली हैं.
राजीव जी लाला जी के बारे में पढ़ते हुये पता नहीं किस भाव से मेरी आंखे नम हो रही हैं. इसमें उनके प्रति आदर है और साथ ही उनसे आपके साथ होते हुये भी न मिल पाने का खेद भी.
इस पल बस यही सोच रहा हू कि दिसम्बर चण्डीगढ़ पहुंचते ही आपको गाड़ी में बैठाऊं और चल पड़ूं बस्तर की ओर ... अस्तु
उच्चतम नैतिक और साहित्यिक मूल्यों की विरासत के प्रतीक लाला जी से साक्षात्कार के लिये साधुवाद
बहुत अच्छा लगा लाला जी का यह साक्षात्कार. राजीव जी को अन्य-अशेष साधुवाद.
जवाब देंहटाएंपंकज झा.
श्री संजीव तिवारी के 'आरंभ' से हो कर यहां आया, टिप्पणी वहां लगा चुका हूं, इसलिए यहां दुहरा नहीं रहा हूं, बस बधाई ...
जवाब देंहटाएंshrdhey lala jgdl puri ka sakshatkar prkashit kr aap ne bahut hi mhtvpoorn vaavshyk kary kiya hai
जवाब देंहटाएंapni agli pidhi ke prti shrdha nivedn krna hmara krtvy hai yhi kritgyta hai swym sahitya shilpi v hm pathk is se smmanit anubhv kr rhe hain lala ji pr is ka koi antr nhi hai apitu hme apne krtvy bodh ke prti sjg rhna chahiye yhi hmara sahityik hona hai
lala ji ka sahitya manviyta ka pkshdhr hai yh manviyta kroorta pyani maaovad ki nhi apitu bhartiy hai yhi sahity ki sarthkta hai
vinash lia ka koi bhi smrthk nhi ho kta
aap ne is mhan vichar dhara ko is madhym se aage bdhaya hai
sahityashilpi ko is ke liya sadhuvad hai is krm ko nirntr gatisheel rkhen lala ji ko mera nmn hai
मन भारी हो गया है टिप्पणी बाद में करूंगा।
जवाब देंहटाएंलाला जगदलपुरी जी के संबंध में आपने हिन्दी-जगत को जो जानकारी दी है; वह स्तुत्य है। लाला जगदलपुरी जी के साहित्य को 'साहित्य-शिल्पी' के माध्यम से अवश्य उजागर करें। यह सही अर्थों में साहित्य-सेवा है।
जवाब देंहटाएं*महेंद्रभटनागर
फ़ोन : 0751-4092908
राजीव जी
जवाब देंहटाएंसाक्षात्कार पढ़ा। बहुत ज़रूरी है देश भर में अकेलेपन से जूझा रहे, अज्ञातवास में रह रहे और समाज के हाशिये पर डाल दिये गये विलक्षण महापुरुषों से रूबरू बात करके उनकी प्रतिभा से पाठकों और नयी पीढ़ी के लोगों को परिचित कराना। आप ये काम बखूबी कर रहे हैं। पहले भ्ज्ञी आपके जरिये कितने ही ऐसे लोगों को जानने का मौका मिला।
संभाल कर रखने लायक साक्षात्कार
बधाई
सूरज
www.surajprakash.com
लाला जी के बारे पढ कर सुखद अनुभूति हुई...साहित्य शिल्पी के प्रयासो का बहुत बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंवैष्णव जी की टिप्पणी जो आरंभ में आई -
जवाब देंहटाएंआदरणीय भाई संजीव तिवारी जी, दंडकारण्ड के संत लाला जगदलपुरी जी के प्रति आपकी और भाई राजीव रंजन प्रसाद जी की भावनाओं की मैं तहे दिल से कद्र करता हूँ. आज के समय में आदरणीय लाला जी जैसा संत साहित्यकार मिल पाना कतई सहज नहीं है. लाला जी तो लालाजी ही हैं, उनका कोइ सानी नहीं. स्वाभिमानी इतने की स्वयं स्वाभिमान भी उनके आगे पानी भरे. प्रचार-प्रसार से कोसों-कोसों दूर, मॉं सरस्वती के सच्चे आराधक; और जैसा कि आपने कहा है: संत, ऋषि. आपने और भाई राजीव रंजन जी ने बहुत सही कहा है: लालाजी को नहीं जाना तो नहीं जाना निराला को, नहीं जाना मुक्तिबोध को, नहीं जाना नागार्जुन को. 00000 ने या अन्या कीसी 00000 ने जो कुछ अपने नाम किया ----- केवल और केवल लालाजी से छलपूर्वक हासिल कर किया.
आपकी जानकारी में इज़ाफा करते हुए बस्तर के ऐसे ही दो और साहित्य-मनिषियों के नाम सूचित करना चाहूँगा जिनसे विविध सामाग्री छलपूर्वक हथिया कर कुछ नामचींन लोगों ने अपना ना केवल काम निकाल लिया अपितु अपने आप को बस्तर विशेषज्ञ के रूउ में स्थापित भी कर लिया. वे मानिषी हैं: श्री रामसिंघ ठाकुर (नारायणपुर) और श्री सोनसिंह पुजारी (जगदलपुर). दोनो ही बस्तर की लोकभाषा हल्बी के मूरधन्य कवि हैं. इन दोनो मानिषियों की सामाग्री का उपयोग महानगरों में बैठे तिकड़मी तथाकथित साहित्यकारों/ भाषा शास्त्रियों /नृतत्वशास्त्रियों ने अपने आप को और अपने शिष्यों को स्थापित करने के लिए जी भर कर किया और अब भी कर रहे हैं.
इस सन्दर्भ में मैने जब चर्चा छेडी तो श्रद्धेय लाला जी बोले : “हमें इस बात का गर्व है की जो कुछ हमने लिखा वह चोरी के लायक है. और चोरी उसी वस्तु की होती है जो चुराने योग्य होती है; यानी महत्वपूर्ण. यानी हमने महत्वपूर्ण लिखा.’’
लाला जी अप्रतिम हैं, रहेंगे. नहीं ले सकता कोइ दूसरा उनकी जगह.
--- हरिहर वैष्णव
Aadarniy bhaaii Raajiiv Ranjan jii
जवाब देंहटाएंShraddhey Laalaa jii ke prati aapkii aur bhaaii Sanjeev Tiwaarii jii kii bhaawnaaon ne mujhe aap dono ke saath khadaa kar diyaa hai. Laalaa jii ko ham log apanaa gurudev maanate rahe hain aur maanate rahenge. Shaanii jii, Dr. Dhananjay Vermaa jii jaise saahity-suuryon ke saath-saath bhaaii Laxminaaraayan Payodhi aur bhaaii Trilok Mahaawar aur mujh akinchan ne unase jo kuchh paayaa hai usake vishay mein kuchh bhii kahnaa kam hii hogaa. Unkaa sneh sabhii ko milataa rahaa hai. Main bahut hii bhaagyashaalii hun ki aadarniy Laalaa jii kaii baar merii kutiyaa mein padhaar chuke hain aur mere puure pariwaar ko unakaa aashiirwaad praapt hotaa rahaa hai.
In dino main unake vyaktitv avam krititv par kaam karane kaa pryaas kar rahaa hun. Thodii-bahuut saamagrii maine jutaayee bhii hai kintu shaayad wah paryaapt nahin. Kyaa aap mujhe is saamagrii ke upyog kii anumati de kar kritaarth kar sakenge? Aur kyaa aapake paas uplabdh any saamagrii bhii mujhe kripaa puurwak uplabdh karaanaa uchit samajhenge? Main aapakaa aajiivan aabhaarii rahuungaa. Aadar sahit.
Aadarniy Raajiv Ranjan jii
जवाब देंहटाएंAbhii abhii ek tippanii gayii hai kintu usmein mere putr NAVNEET kaa naam chalaa gayaa hai, jise kripayaa sanshodhit kar HARIHAR VAISHNAV kar lein.
--Harihar Vaishnav
आदरणीय हरिहर वैष्णव जी,
जवाब देंहटाएंयह मेरे लिये शब्दों में न बयान किया जा सकने वाला सुख है कि आपका आशीर्वाद मुझे तथा इस प्रयास को प्राप्त हुआ। आपने बस्तर पर जितना सूक्ष्म कार्य किया है वह अतुलनीय है। मेरे संग्रह में आपकी अनेक किताबे हैं।
आप लाला जी के व्यक्तित्व एवं कृतीत्व पर लिख रहे हैं यह जान कर न केवल प्रसन्नता हो रही है बल्कि मैं इस महति कार्य के लिये आपका आभार भी व्यक्त करना चाहता हूँ। इस साक्षात्कार तथा मेरे पास उपलब्ध अन्य सामग्रियों को मैं आपका ही मानता हूँ इसे आप जैसे चाहे प्रयोग में ला सकते हैं। आपने यह मान दिया यही मैं उपलब्धि की तरह शिरोधार्य करता हूँ।
मैं कल रात्रि से आपसे बात करने का स्वयं इच्छुक था किंतु फोन नं न मिल पाने के कारण पत्रोत्तर देने के लिये इसी सार्वजनिक मंच का प्रयोग कर रहा हूँ।
विनीत-
राजीव रंजन प्रसाद
प्रिय राजीव,
जवाब देंहटाएंतुम्हारे साक्षात्कार सबसे अलग होते हैं। तुम stock प्रश्नों से बचते हुए साक्षात्कार को इस तरह तैयार करते हो जैसे तुम उन पलों को जी रहे हो। आज एक रिवाज है कि प्रश्नकर्ता 15 या 20 सवाल टाइप करके किसी भी जाने पहचाने नाम को भेज देता है और वह नाम उनके उत्तर टाइप करके या करवा के वापिस भेज देता है और हो गया साक्षात्कार।
मुझे याद है कि आपने अपने तीन साथियों के साथ एक पूरा दिन मेरे संग बिताया और उसके बाद जा कर साक्षात्कार पूरा हुआ। लाला जगदलपुरी जी के बारे में अपनी अज्ञानता प्रदर्शित करते हुए मुझे कोई संकोच नहीं है। आपकी बहुत बड़ी उपलब्धि है कि आपने मुझ जैसे अज्ञानी को भी इतने महत्वपूर्ण व्यक्ति के बारे में जानकारी दी।
आपके साक्षात्कार भी आपकी समीक्षाओं की तरह आपके व्यक्तित्व का एक हिस्सा बन जाते हैं। ढेर सी बधाइयां।
lala ji ke ghazal sangrah ki iklauti prati dekh kar badi tees hui. achambha bhi hua ki hindi ghzal ke pradurbhav mein lala ji ka naam nahi suna jaata. Rajiv bhaiya se appeal hai ki un ki likhi ghazalein ati sheeghra uplabdh karayein.. ek sundar saakshaatkar..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा काम किया है राजीव। हमें अपने वरिष्ठ रचनाकारों को सहेजना है वर्ना हम अपना इतिहास मिटा बैठेंगे और आधारहीन हो जाएँगे। बस्तर बुद्धिजीवियों की धरा है। आपका काम सहाहनीय है।
जवाब देंहटाएंलाला जी के बारे में जानकर ऐसा लगा मानो कुछ खोया हुआ मिल गया।
जवाब देंहटाएंआपने सच लिखा है कि बस्तर से आजकल अच्छी ख़बर नहीं आती, बस्तर मानो नक्सली गतिविधियों का पर्याय बन चुका है। लेकिन मैं जब भी बस्तर के बारे में सोचता हूँ तो सबसे पहले राजीव जी आप हीं मुझे याद आते हैं। मेरे लिए अभी तक बस्तर के अर्थ थे "राजीव जी", लेकिन लाला जी को पढकर और उनके बारे में पढकर मेरे मन में बस्तर का महत्व कई गुणा बढ गया है। लाला जी के बारे में और भी बहुत जानना चाहूँगा... यह सुनकर अच्छा लगा कि आप उनकी ग़ज़लों को "कविता-कोष" पर लाने में प्रयासरत हैं।
आपको और पूरी साहित्य-शिल्पी टीम को मेरी तरफ़ से ढेरों बधाईयाँ और शुभकामनाएँ।
-विश्व दीपक
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जवाब देंहटाएंपूरी की पूरी यादें जैसे मेरे समक्ष तस्वीर के रूप में सामने आ गई। लालाजी के साथ मेरा बहुत गहरा रिश्ता रहा हैं। आज सालों बाद भले ही वे मुझे भूल गये होगे पर मेरी यादों में वे आज भी ताजा हैं, जगदलपुर की गलियों में हाथ में छाता पकड़े जब भी मैं उन्हें देखती मेरा मन बिना कुछ कहें उनके आगे नतमस्तक हो जाता, और वो जवाब में बस इतना ही कहते कैसी हो पूनम कभी जब मैं लिखा करजी थी और उनसे सलाह लेने उनके घर जाती तो उन्हें अक्सर बिना चश्में के किताबों के बीच उलझा पाती मुझे आष्चर्य होता कि इन बुढ़ी ऑंखों में इतनी रोषनी आती कहां से हैं, तब मुझे एहसास होता कि ये तो जीवन भर की साहित्यिक मेहनत हैं, जो आज भी ऊर्जा और उत्साह से लालाजी को भर देती हैं, अक्सर मैं उनके लिये केले ले जाती क्योंकि केले ही वो बड़ी आसानी से खा सकते थे। उन्हें शायद ये पूनम विष्वकर्मा याद न हो पर मुझे वह मेरा बचनप और मेरी यादों में बसा जगदलपुर और उसमें बसे लालाजी आज भी याद हैं, बिलकुल भोर की सुबह की तरह .......................।
जवाब देंहटाएंआपकी यह पहल सराहनीय है. आदरणीय लाला जगदलपुरी जी को उनकी सुदीर्घ और निःस्वार्थ साहित्य साधना के लिए पदमश्री ज़रूर मिलना चाहिए .उनके जैसे तपस्वी साहित्यकार हमारे हिंदी जगत और विशेष रूप से आंचलिक साहित्य जगत में अब हैं भी कहाँ ? लाला जी ने छह- सात दशकों से जारी अपनी साहित्य साधना को कभी व्यवसाय नहीं बनाया . यह उनकी एक बहुत बड़ी विशेषता है. मै आपके इस प्रस्ताव का ह्रदय से समर्थन करता हूँ .लाला जी के अच्छे स्वास्थ्य के लिए उन्हें हार्दिक शुभकामनाएं .
जवाब देंहटाएंराजीव रंजन जी, बनाइए कुछ वीडियो क्लिपें भी : 91 वर्षीय युगपुरुष रचनाकार लाला जगदलपुरी हमारे साहित्य संसार में आज एक अनूठी शख्सीयत हैं। राजीव रंजन जी ने उनसे मुलाकात का विवरण और प्रश्न-उत्तर रूप में उनका साक्षात्कार इतने जीवंत रूप में उपलब्ध कराया है कि गहन तृप्ति का अनुभव हुआ। आज के जमाने में जबकि मोबाइल फोन सेट से भी वीडियो क्लिपें बना लेना सहज संभव है, हमारा सुझाव और आग्रह है कि राजीव रंजन जी पुन: उनसे मुलाकात करें और लाला जी की दो-चार वीडियो क्लिपें तैयार करने का प्रयास करें। उनकी दिनचर्या के प्रमुख अंश, उनसे साहित्य, संस्कृति, समाज और संबंधित भूगोल से संबंधित विषयों पर चर्चाएं यदि दृश्यबद्ध हो सकें तो हमारा बहुत भला हो.. बहरहाल, विवरण और साक्षात्कार के लिए अनौपचारिक हार्दिक आभार राजीव रंजन जी..
जवाब देंहटाएं"अगर आप लाला जगदलपुरी को नहीं जाने तो आप मुक्तिबोध को भी नहीं जानते, तो आप नागार्जुन को भी नहीं जानते और आप निराला को भी नहीं जानते और आप बस्तर को भी यकीनन नहीं जानते।"
जवाब देंहटाएंवाह!!!बहुत सत्य बात कही अपने ...
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.