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चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा [भाग-1] - अनुवाद एवं प्रस्तुति: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

Charls Darvin's Autobiography by Suraj Prakash and K.P.Tiwari
[मेरे पिता के आत्म कथ्यात्मक संस्मरण यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं। ये संस्मरण उन्होंने अपने घर परिवार और अपने बच्चों के लिए लिखे थे, और उनके मन में कत्तई यह विचार नहीं था कि कभी इन्हें प्रकाशित भी कराया जायेगा। बहुत से लोगों को यह असम्भव लग रहा होगा, लेकिन जो लोग मेरे पिता को जानते थे, वे समझ जाएंगे कि यह न केवल सम्भव था, बल्कि स्वाभाविक भी था। उनकी आत्मकथा का शीर्षक था मेरे मन और व्यक्तित्व विकास के संस्मरण और ये वाली अन्तिम टिप्पणी दर्ज की गयी थी 3 अगस्त 1876 को,"मेरे जीवन का यह रेखाचित्र होपडेन में शायद 28 मई को शुरू हुआ और उसके बाद से मैंने लगभग प्रतिदिन दोपहर एक घण्टा लेखन किया।"
Charls Darvin's Autobiography by Suraj Prakash and K.P.Tiwariरचनाकार परिचय:-

सूरज प्रकाश का जन्म १४ मार्च १९५२ को देहरादून में हुआ।

आपने विधिवत लेखन १९८७ से आरंभ किया। आपकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं:- अधूरी तस्वीर (कहानी संग्रह) 1992, हादसों के बीच (उपन्यास, 1998), देस बिराना (उपन्यास, 2002), छूटे हुए घर (कहानी संग्रह, 2002), ज़रा संभल के चलो (व्यंग्य संग्रह, 2002)।

इसके अलावा आपने अंग्रेजी से कई पुस्तकों के अनुवाद भी किये हैं जिनमें ऐन फैंक की डायरी का अनुवाद, चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा का अनुवाद, चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा का अनुवाद आदि प्रमुख हैं। आपने अनेकों कहानी संग्रहों का संपादन भी किया है।

आपको प्राप्त सम्मानों में गुजरात साहित्य अकादमी का सम्मान, महाराष्ट्र अकादमी का सम्मान प्रमुख हैं।

आप अंतर्जाल को भी अपनी रचनात्मकता से समृद्ध कर रहे हैं।


Charls Darvin's Autobiography by Suraj Prakash and K.P.Tiwari
कृष्ण प्रसाद तिवारी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी विषय में एम. ए. करने के बाद यहीं से अनुवाद प्रमाणपत्र का अध्यययन भी किया। अध्ययन के दौरान सर्वोच्चय न्यायालय और लॉ कमीशन से अनुवाद कार्य में जुड़े रहे। सम्प्रति भारतीय रिज़र्व बैंक में प्रबन्धपक के पद पर कार्यरत और राजभाषा विभाग में नियुक्ता भी हैं।

आँगन बाड़ी की कार्यकर्ताओं के लिए जच्चा-बच्चा़ की देखभाल की सम्पूर्ण पुस्तिका का अनुवाद तथा सूरज प्रकाश जी के साथ मिलकर किया गया "चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा" का अनुवाद इनकी प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं।

यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि यह आत्मकथा बहुत ही व्यक्तिगत और प्रगाढ़ सम्बन्धों को बताते हुए, अपने परिवार के लिए लिखी गयी थी, लिहाजा इसमें ऐसे अन्तरंग विवरण भी थे, जिन्हें प्रकाशित किया जाना उचित नहीं था। मैंने हटाए गए वर्णनों का जिक्र भी नहीं किया है। बहुत ही ज़रूरी होने पर ही क्रियापदों की चूक वग़ैरह को ठीक किया है, लेकिन इस तरह का बदलाव भी कम ही किया है - फ्रांसिस डार्विन]

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एक जर्मन सम्पादक ने मुझे लिखा कि मैं अपने मन और व्यक्तित्व के विकास के बारे में लिखूँ। इसमें आत्मकथा का भी थोड़ा-सा पुट रहे। मैं इस विचार से ही रोमांचित हो गया। शायद यह मेरी संतानों या उनकी भी संतानों के कुछ काम आ जाए। मुझे पता है जब मैंने अपने दादाजी की आत्मकथा पढ़ी थी तो मुझे कैसा लगा था। उन्होंने जो सोचा और जो किया, तथा वे जो कुछ करते थे, वह सब पढ़ा तो लेकिन ये सब बहुत संक्षिप्त और नीरस-सा था। मैंने अपने बारे में जो कुछ लिखा है, वह इस तरह से लिखा है जैसे मैं नहीं बल्कि परलोक में मेरी आत्मा मेरे जीवन और कृत्यों को देख देख कर लिख रही हो। मुझे इसमें कुछ भी मुश्किल नहीं आयी। अब तो जीवन बस ढलान की ओर बढ़ रहा है। लेखन शैली पर मैंने कोई ध्यान नहीं दिया है।

मेरा जन्म 12 फरवरी 1809 को शूजबेरी में हुआ था। मुझे सबसे पहली याद उस समय की है, जब मैं चार बरस से कुछ महीने ज्यादा की उम्र का था। हम लोग समुद्र तट पर सैर-सपाटे के लिए गए थे। कुछ घटनाएँ और स्थान अभी भी मेरे मन पर धुंधली-सी याद के रूप में हैं।

मैं अभी आठ बरस से कुछ ही बड़ा था कि जुलाई 1817 में मेरी माँ चल बसीं, और बड़ी अजीब बात है कि उनकी मृत्यु शैय्या, काले शनील से बने उनके गाउन, बड़े ही जतन से सहेजी सिलाई कढ़ाई की उनकी मेज के अलावा उनके बारे में मुझे कुछ भी याद नहीं।

उसी साल बसन्त ऋतु में मुझे शूजबेरी के एक डे स्कूल में दाखिल करा दिया गया। उसमें मैं एक बरस तक रहा। लोग-बाग मुझे बताते थे कि छोटी बहन कैथरीन के मुकाबले मैं पढ़ाई-लिखाई में एकदम फिसड्डी था जबकि मैं तो मानता हूँ कि मैं काफी शरारती भी था।

इस स्कूल में जाने के समय तक प्राकृतिक इतिहास, और खास कर विभिन्न प्रकार की चीज़ों के संग्रह में मेरी रुचि बढ़ चुकी थी। मैं पौधों के नाम जानने की कोशिश करता, और शंख, बिल्लौरी पत्थर, सिक्के और धातुओं के टुकड़े बटोरता फिरता रहता। संग्रह करने का यह जुनून किसी भी व्यक्ति को सलीकेदार प्रकृतिवादी या कलापारखी ही नहीं, उसे कंजूस भी बनाता है। जो भी हो, यह जुनून मुझमें था, और यह सिर्फ मुझमें ही था, क्योंकि मेरे किसी भी भाई या बहन में इस तरह की रुचि नहीं थी।

इसी बीच एक छोटी-सी घटना मेरे ज़ेहन पर पुख्ता लकीर छोड़ गयी। मेरा विचार है कि यह मेरे ज़ेहन को बार बार परेशान भी कर देती थी। यह तो साफ ही था कि मैं अपने छुटपन में पौधों की विविधता में रुचि लेता था। मैंने अपने एक हम उम्र बच्चे (मैं यह पक्का कह सकता हूँ कि यह लेहटान था, जो आगे चलकर प्रसिद्ध शिलावल्क विज्ञानी और वनस्पतिशास्त्रील बना) को बताया कि मैं बहुपुष्पक और बसंत गुलाब को किसी खास रंग के पानी से सींचूंगा तो अलग ही किस्म के फूल लगेंगे। हालांकि यह बहुत बड़ी डींग हांकना था, लेकिन मैंने कभी इसके लिए कोशिश नहीं की थी। मैं यह मानने में संकोच नहीं करूँगा कि मैं बचपन में अलग ही तरह की कपोल कल्पनाएँ किया करता था, और ये सब महज एक उत्सुकता बनाए रखने के लिए करता था।

ऐसे ही एक बार मैंने अपने पिताजी के बाग में बेशकीमती फल बटोरे और झाड़ियों में छुपा दिए, और फिर हाँफता हुआ घर पहुँच गया और यह खबर फैला दी कि चुराए हुए फलों का एक ढेर मुझे झाड़ियों में मिला है।

मैं जब पहली बार स्कूल गया तो शायद बुद्धू किस्म का रहा होऊंगा। गारनेट नाम का एक लड़का एक दिन मुझे केक की दुकान पर ले गया। वहाँ उसने बिना पैसे दिए ही केक खरीदे, क्योंकि दुकानदार उसे जानता था। दुकान के बाहर निकलने के बाद मैंने उससे पूछा कि तुमने दुकानदार को पैसे क्यों नहीं दिए, तो वह फौरन बोला - इसलिए कि मेरे एक रिश्तेदार ने इस शहर को बहुत बड़ी रकम दान में दी थी, और यह शर्त रखी थी कि उनके पुराने हैट को पहनकर जो भी आए और किसी भी दुकान पर जाकर एक खास तरह से अपने सिर पर घुमाए तो इस शहर के उस दुकानदार को बिना पैसे माँगे सामान देना होगा।' इसके बाद उसने अपना हैट घुमाकर मुझे बताया। उसके बाद वह दूसरी दुकान में गया, वहाँ भी उसकी पहचान थी, उस दुकान में उसने कोई छोटा-सा सामान लिया, अपने हैट को उसी तरह से घुमाया और बिना पैसे दिए ही सामान लेकर बाहर आ गया। जब हम बाहर निकल आए तो वह बोला,`देखो अब अगर तुम खुद केक वाले की दुकान में जाना चाहते हो (मुझे सही जगह याद कहाँ रहने वाली थी) तो मैं अपना हैट दे सकता हूँ, और अगर तुम इसे सही ढंग से सिर पर हिलाओगे तो जो कुछ चाहोगे, बिना दाम लिए ले सकोगे।' इस दयानतदारी को मैंने फौरन मान लिया और दुकान में जाकर कुछ केक लिए, उस पुराने हैट को वैसे ही हिलाया जैसे बताया गया था, और ज्यों ही बाहर निकलने को हुआ, तो दुकानदार पैसे माँगते हुए मेरी तरफ लपका। मैंने केक को वहीं फेंका और जान बचाने के लिए सिर पर पैर रखकर भागा। जब मैं अपने धूर्त दोस्त गारनेट के पास पंहुंचा तो उसे हँसते देखकर मैं चकित रह गया।

मैं अपने बचाव में कह सकता हूँ कि यह बाल सुलभ शरारत थी, लेकिन इस बात को शरारत मान लेने की सोच मेरी अपनी नहीं थी, बल्कि मेरी बहनों की हिदायतों और नसीहतों से मुझमें इस तरह की सोच पैदा हुई थी। मुझे संदेह है कि मानवता कोई प्राकृतिक या जन्मजात गुण हो सकती है। मुझे अण्डे बटोरने का शौक था, लेकिन किसी भी चिड़िया के घोंसले से मैं एक बार में एक ही अण्डा उठाता था, लेकिन एक बार मैं सारे ही अण्डे उठा लाया, इसलिए नहीं कि वे बेशकीमती थे, बल्कि महज अपनी बहादुरी जताने के लिए।

मुझे बंसी लेकर मछली मारने का बड़ा शौक था। किसी नदी या तालाब के किनारे मैं घन्टों बैठा रह सकता था और पानी की कलकल सुनता रहता था। मायेर में मुझे बताया गया कि अगर पानी में नमक डाल दिया जाए तो केंचुए मर जाते हैं, और उस दिन से मैंने कभी भी जिन्दा केंचुआ बंसी की कंटिया में नहीं लगाया। हालांकि, इससे परेशानी यह हुई कि मछलियाँ कम फंसती थीं।

एक घटना मुझे याद है। तब मैं शायद डे स्कूल में जाता था। अपने घर के पास ही में मैंने बड़ी ही निर्दयता से एक पिल्ले को पीटा। इसलिए नहीं कि वह किसी को नुक्सान पहुँचा रहा था बल्कि इसलिए कि मैं अपनी ताकत आजमा रहा था, लेकिन शायद मैंने उसे बहुत ज़ोर से नहीं मारा था, क्योंकि वह पिल्ला ज़रा-भी किंकियाया नहीं था। यह घटना मेरे दिलो दिमाग पर बोझ-सी बनी रही, क्योंकि वह जगह मुझे अभी भी याद है, जहाँ मैंने यह गुनाह किया था। उसके बाद तो जब मैंने कुत्तों से प्यार करना शुरू कर दिया तो यह बोझ शायद और भी बढ़ता गया, और उसके बाद काफी समय तक यह एक जुनून की तरह रहा। लगता है कि कुत्ते भी इस बात को जान गए थे क्योंकि कुत्ते भी अपने मालिक को छोड़ मुझे ज्यादा चाहने लगते थे।

मि. केस के डे स्कूल में जाने के दौरान हुई एक घटना और भी है जो मुझे अब तक याद है, और वह है एक ड्रैगून सिपाही को दफनाने का मौका। अभी तक वह मंज़र मेरी आँखों के सामने है कि कैसे घोड़े पर उस सिपाही के बूट रख दिए गए थे और कारबाइन को काठी से लटका दिया गया था, फिर कब्र पर गोलियाँ चलायी गयीं। भीतर उस समय जैसे किसी सोये हुए कवि की आत्मा जाग उठी थी। इतना प्रभाव पड़ा उस दृश्य का।

क्रमश:

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11 टिप्पणियाँ

  1. पूत के पाँव पालने में दिखते हैं। डारविन के बचपन की अभिरुचियों से कहा जा सकता है।

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  2. माँ के गुजर जाने का प्रभाव बच्चे पर पडता ही है। बहुत अच्छी अनुवाद प्रस्तुति।

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  3. अच्छा अनुवाद हुआ है -डार्विन महोदय के बाल लीलाएं विस्तार पा रही हैं ! डार्विन द्विशती जयंती के अवसर पर यह प्रस्तुत करने के लिए साहित्य शिल्पी का बहुत आभार और अनुवादक द्वय को बहुत साधुवाद !

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  4. डार्विन के बच्पन को जानने पर लगता है कि वर्तमान के दारवीन की नीव तो बहुत पहले पड़ गयी थी। वे छोटी छोटी घटनायें याद करते हैं। अपनी चोरी, अपनी, बेवकूफी यहाँ तक कि अपनी शरारतों का बखूबी जिक्र डार्विन की आत्मकथा मे हुआ है।

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  5. बहुत अच्छी अनुवाद प्रस्तुति, धन्यवाद।

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  6. इस प्रस्तुति को पढ कर आगे पढने की जिज्ञासा बढ गयी। अनुवाद बहुत अच्छा हुआ है।

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  7. विज्ञान पर जो भी रुचि रखते हैं उनके लिये चार्ल्स डारविन एक पहेली हैं; उन्हे जानने का यह अवसर प्रदान करने का धन्यवाद

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  8. रोचक है प्रस्तुति अनुवाद अच्छा होने के कारण पढने मे आनंद आया।

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  9. डारविन के विषय में दुर्लभ प्रस्तुति।

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