HeaderLarge

नवीनतम रचनाएं

6/recent/ticker-posts

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले [भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु की फाँसी पर विशेष आलेख] - अभिषेक सागर


तत्कालीन सेंट्र्ल असेम्बली मे, जिसके अध्यक्ष श्री विट्ठ्लभाई पटेल(सरदार वल्लभभाई पटेल के बडे भाई) थे के सम्मुख अंग्रेज सरकार ने दो बिलो को प्रस्तुत किया था- 
(1) ट्रेड डिस्प्यूट बिल(औधोगिक विवाद विधेयक) 
(2) पब्लिक सेफ्टी बिल(जन सुरक्षा विधेयक) 

इन बिलो का उद्देश्य मजदूर आंदोलनो को कमजोर करना था जिसपर बहस के लिये 8 अप्रेल 1929 दिन तय किया गया। इस को उपयुक्त समय मान भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त नें सदन मे प्रवेश के लिये पत्रकार के. सी. राय के माध्यम से दर्शक दीर्घा मे प्रवेश किया व वे ऐसी जगह जाकर बैठ गये जहा से बम पूर्वनिर्धारेत निशाने पर फेंके जा सके। इन बिलो पर बहस जारी थी और इन बिलो के औचित्य पर जब विटठ्लभाई अपना निर्णय देने उठ रहे थे तभी भगत सिह और बटुकेश्वर दत ने दो बम ऐसे स्थान पर फेके जहाँ स्थल लगभग निर्जन था। बमो के फटने से जोरदार धमाका हुआ और सदन मे धुआ फैल गया। भगत सिह और बटुकेश्वर दत चाहते तो भाग सकते थे क्योकि वहाँ अफरा तफरी मच गयी थी किंतु उन्होने दर्शक दीर्घा से लाल पर्चे फेके जिनमें स्पष्ट किया गया था कि अंधी और बहरी अंग्रेजी सरकार को राष्टीय संकल्प सुनाने के लिये यह धमाका जरूरी था। भगत सिह और बटुकेश्वर दत अपनी जगह पर खडे होकर इंकलाब जिन्दाबाद और बर्तानवी साम्राज्यवाद मुर्दाबाद नारे लगाते रहे। यही पर पुलिस द्वारा उन्हे गिरफतार कर पहले संसद मार्ग थाने और फिर चांदनी चौक पुलिस स्टेशन लाया गया। 

दिल्ली पुलिस की आवश्यक कार्यवाही के बाद दिल्ली सेशन कोर्ट मे 7 मई 1929 को मुकदमा आरंभ हुआ, जिसमे प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता बैरिस्टर आसफ अली को अभियुक्तो की ओर से सफाई के लिये वकील नियुक्त किया गया। सरकारी गवाहो के ब्यानो के बाद अदालत के मागने पर 9 जून 1929 को भगत सिंह नें अपना लिखित ब्यान दिया जिसमे 2 प्रमुख प्रश्नो के जबाब दिये गये 
1. क्या सदन मे बम फेके गये थे? यदि ऐसा हुआ तो इसका क्या कारण था? 
2. निम्न न्यायलय ने जिस प्रकार आरोप लगाये है, वह सही है या नही? 
भगत सिंह नें अपने जवाब में कहा कि हम बम फेकने का दायित्व स्वीकार करते है पर सार्जेण्ट टेरी का कहना है उन्होने हममें से एक के हाथ से पिस्तौल छीनी यह गलत है, जब हमने आत्मसमर्पण किया था तब हमारे पास पिस्तौल नही थी। घट्ना के पश्चात दोनो सदनो के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करते हुए लाँड इर्वीन ने यह कहा है कि हम लोगो ने बम फेककर किसी ब्यक्ति पर नही वरन एक व्यवस्था पर आक्रमण किया है। उसी समय हमे तुरंत आभास हुआ कि इस घटना के वास्तविक महत्व का सही मूल्यांकन किया गया है। हम किसी मानव मात्र के प्रति कोई द्वेश नही रखते वरन हम पांखड से घृणा करते है। हमारा प्रयोजन हानी नही वरन संसार के समक्ष भारतीय दीनता व असहायता का प्रदर्शन करना है। एक तरफ जनता के प्रतिनिधियो के राष्ट्रीय मांग को बार बार रद्दी की टोकरी मे फेक दिया जाता है वही अपनी शानो शौकत बनाए रखने के लिये करोडो लोगो के गाढे पसीने की कमाई व्यय की जाती है। हमे ऐसा लगा कि विदेशी सरकार और भारत के सार्वजनिक नेताओ ने इस देश मे चल रहे आंदोलन की ओर से आँख मूँद ली है तथा उनके कानों में इसकी आवाज नहीं पड रही है। अत: हमें यह कर्तव्य प्रतीत हुआ कि हम ऐसे स्थान पर चेतावनी दें, जहाँ हमारी आवाज अनसुनी न रह सके। 

दूसरे प्रश्न के जबाब मे यह कहना है कि क्रांति मे घातक संघर्षो का अनिवार्य स्थान नही है न उसमे व्यक्तिगत प्रतिशोध लेने की जगह। क्रांति बम और पिस्तौल की संस्कृति नही। क्रांति से हमारा प्रयोजन अन्याय पर आधारित वर्तमान व्यवस्था का प्ररिवर्तन है..... 

12 जून 1929 को कडे सुरक्षा मे दोनो मातृभूमि भक्तों को आजीवन काले पानी की सजा सुनाई। अपनी सजा के विरोध मे दोनो ने किसी प्रकार की कोई अपील करने से इनकार कर दिया। चूंकि दोनो अभियुक्त लाहौर षडयंत्र मे भी अभियुक्त थे सो दोनो को दिल्ली से लाहौर जेल भेज दिया। यहाँ भगत सिह को मियाँवली जेल मे रखा गया। भगत सिंह नें 15 जून 1929 से जेल मे स्वतंत्रता सेनानियों से अच्छे व्यवहार के स्वाभाविक अधिकार के लिये भुख हडताल आरंभ की जो अक्टूबर के प्रथम सप्ताह तक चली। इसमे यतीन्द्रनाथ ने अपनी जान गवां दी। यह बलिदान व्यर्थ न गया इसका देश की जनता पर इतना प्रभाव पडा कि जगह जगह इन क्रातिकारियों की चर्चायें होने लगी।
लाहौर षड्यंत्र के मुकदमें मे 7 अक्टूबर 1930 को अंतिम निर्णय आ गया जिसमें भगत सिह , सुखदेव और राजगुरु को फाँसी पर चढाये जाने का हुक्म था। सरकार ने इस बात पर बहुत सावधानी रखी कि जनता को इस फैसले की जानकारी न हो सके पर लाहौर मे यह खबर आग की तरह फैल गई और दफा 144 के बावजूद म्युनिस्पल ग्राउड मे एक विशाल जनसभा आयोजित हुई। 8 अक्टूबर को समूचे देश मे प्रदर्शन हुए। स्कूल कौलेज सभी बंद रहे और लोग गिरफ्तार हुए जिनमे महिलायें भी थी। सारा देश विशाल रणभूमि बन गया। भगतसिह और उनके साथियो को बचाने के लिये हस्ताक्षर अभियान भी चला जिसमे आमजन से लेकर नेताओं, राजाओं और ब्रिटेन के संसद के सदस्यो तक ने प्राण रक्षा की प्राथेना की पर वह भी सफल नही हुई। 

वकील के कहने पर वकील के अनुसार नही वरन भगतसिह ने अपने अनुसार एक प्रार्थनापत्र पंजाब के गवर्नर को भेजा जिसमे उन्होंने कहा कि आपके अनुसार हमने सम्राट के विरूद्ध संघर्ष किया है। नयायलय के इस निर्णय से दो बात स्पष्ट हो जाती है- प्रथम यह कि अंग्रेज जाति और भारतीय जनता के बीच एक संघर्ष चल रहा है और दूसरी कि हमने निश्चित रूप से युद्ध मे भाग लिया है अत: हम युद्धबंदी है। सो हमारे साथ उसी जैसा वर्ताव कर फाँसी देने के बदले गोली से उडा दो। 

25 जनवरी 1931 को गाँधीजी व उनके प्रमुख साथियो को रिहा किया गया ताकि वे गोलमेज सम्मेलन में भाग ले सकें। 27 फरवरी से 4 मार्च तक वार्ता चली और 5 मार्च को गाँधी इरवीन समझौता हुआ। इसमे 16 धाराए थी 9वी धारा मे था “ वे कैदी छोडे जायेगे जो सविनय अवज्ञा आन्दोलन के सिलसिले मे ऐसे अपराधों के लिए कैद भोग रहे होंगे जिनमे नाममात्र की हिंसा छोड किसी प्रकार की हिंसा के लिए उतेजना न हो”। सो इसमे भगतसिह के लिए कोई आशा नही थी। 

23 मार्च 1931 शाम 7 बजकर 33 मिनट पर फाँसी दी गई। इसी दिन इनका परिवार मिलने आया तो केवल माता पिता के लिए ही आज्ञा मिली। तब पिता ने कहा मिलेगे तो सभी, वरना कोई नही। तब उनके साथ उनका परिवार ही नही वरन अन्याय के विरूद्ध नारे लगाती जनता भी थी। 

फासी के पहले भगत सिह सुखदेव व राजगुरु ने एक दुसरे से गले मिले तथा इंकलाब जिन्दाबाद! साम्राज्यवाद मुर्दाबाद! का नारा लगा कर अपने फंदे को चूमा और गले मे डाल कर सहज भाव से जल्लाद से कहा “कृपा कर आप इन फंदो को ठीक क्रर लें।...........और उन्हे फासी दे दी गई। 

खबर आग की तरह फैली, लोग जेल परिसर में जमा होने लगे। इतना ही पता लगा कि लाशो को जलाने के लिए बाहर भेज दिया गया है। लोग उस स्थान के खोज मे इधर उधर बिखर गये। दूसरे दिन सबेरे लोगो ने देखा कि स्थान स्थान पर पोस्टर चिपके है- “सिंख ग्रंथी और हिन्दु पंडितो के द्वारा भगतसिह, सुखदेव और राजगुरू का अंतिम संस्कार कर दिया गया।“ जैसे ही घोषणा हुई सारा देश जल उठा। इस विद्रोह को दबाने के लिए सरकार को कई शहरो मे सेनाए घुमानी पडी।
सरदार बल्लभभाई पटेल की अध्यक्षता मे कराची कॉग्रेस मे 29 मार्च को शोक प्रस्ताव के बाद भगतसिह और उनके साथियो के संबंध मे प्रस्ताव पारित किया। जिसपर काफी विवाद और मतभेद हुआ, यह था ”यह कॉग्रेस किसी भी रूप अथवा प्रकार की राजनीतिक हिंसा से अपना संबध न रखते हुए उसका समर्थन न करते हुए स्वर्गीय भगतसिह और उनके साथी सर्वश्री सुखदेव और राजगुरू के बलिदान और बहादुरी की प्रशंसा को अभिलेखबद्ध करती है और इनकी जीवन हानी पर शोकातुर परिवारो के साथ शोक प्रकट करती है।“ 

जेल मे रहते हुए भगतसिह ने कई पुस्तके लिखी जिनमे 4 महत्वपूर्ण थी 
(1) आइडियल आव सोशलिज्म (समाजवाद का आदर्श) 
(2) दि डोर्‍ टु डेथ (मृत्यु के द्वार पर) 
(3) आटोबायग्राफी (आत्मकथा) 
(4) दि रिविल्यूशनरी मूवमेंट आव इडिया विद शार्ट बायग्राफिक स्कैचेस आव दि रिवोल्यूशरीज (भारत मे क्रातिकारी आन्दोलन और क्रातिकारियो का संक्षिप्त परिचय)। 

दुख की बात है कि यह पुस्तके अंतत: नष्ट कर दी गई। पुस्तके नष्ट की जा सकती थीं, आवाज दबायी जा सकती थी लेकिन विचार तो बीज होता है। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फाँसी अंग्रेजी सरकार और उसकी सत्ता के ताबूत पर आखिरी कील साबित हुई। जो भारत भूमि एसे सपूतों की जन्मस्थलि हो उसे तो आज़ाद होना ही था। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का बलिदान यह राष्ट्र कभी भुला न सकेगा, कहते भी हैं कि - शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले। 

एक टिप्पणी भेजें

11 टिप्पणियाँ

  1. देश का युवा आज दो भागों में बँटा हुआ दिखता है | एक वैलेंटाइन मनाने वाला , एक उस का विरोध करने वाला | बाकी और विषयों पर खून खौलना बंद हो गया है |
    सरदार भगत सिंह ने मात्र २३ वर्ष की उम्र में निज स्वार्थ से ऊपर उठ कर एक देश वादी सोच का प्रसार किया | उन्होंने देश के युवा को याद दिलाया की उस की शक्ति असीमित है | उन की ज़रुरत आज कहीं ज्यादा हो चली है |
    एक जानकारी भरा लेख |सरदार जी द्बारा लिखी हुई किताबो के नाम निकाल कर लाना आसान नहीं रहा होगा|
    शहीदों को नमन |

    जवाब देंहटाएं
  2. अमर शहीद भगत सिंह को स्मरण रखना आवश्यक है। वे युगों तक प्रेरणा पुंज रहेंगे।

    जवाब देंहटाएं
  3. श्रद्धांजलि।

    "जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुरबानी"

    जवाब देंहटाएं
  4. दुख की बात है कि यह पुस्तके अंतत: नष्ट कर दी गई। पुस्तके नष्ट की जा सकती थीं, आवाज दबायी जा सकती थी लेकिन विचार तो बीज होता है। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फाँसी अंग्रेजी सरकार और उसकी सत्ता के ताबूत पर आखिरी कील साबित हुई। जो भारत भूमि एसे सपूतों की जन्मस्थलि हो उसे तो आज़ाद होना ही था। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का बलिदान यह राष्ट्र कभी भुला न सकेगा, कहते भी हैं कि - शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।

    जवाब देंहटाएं
  5. भगत सिंह की फाँसी पर कॉग्रेस का शोकपत्र पढ कर यह अहसास हो जाता है कि उस समय के नेता भी आज के नेताओ जैसे ही थे।

    जवाब देंहटाएं
  6. भगत सिह जिस क्रांति की मशाल ले कर चले थे. वह क्रांति इस देश ही नही अपितु पूरि दुनिया के लिये आज पहले से ज्यादा आवश्यक हो गई है.. अंधकार के इस वक्त में हम आशावान है कि फिर कोई हवा चलेगी भगत सिंह के विचारों कि और वह सुबह कभी तो आएगी....

    जवाब देंहटाएं
  7. उनके विचारों से रिश्ता जोड़ने की जरूरत है। सांप्रदायिकता,पूंजीवाद, साम्राज्यवाद से कैसे लड़े,सोचना जरूरी है। वर्ना तो रंग दे बसंती जैसी भ्रष्ट फिल्म भी भगत सिंह के नाम पर ही बना दी जाती है।

    जवाब देंहटाएं
  8. आपने शीर्षक सही दिया है कि शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले...लेकिन उसके बाद?

    अनुज कुमार सिन्हा

    भागलपुर

    जवाब देंहटाएं
  9. अभिषेक जी !

    आज के युवा को ही नहीं हम सभी को शहीदे आज़म भगत सिंह की शहादत को स्मरण रखने की सतत आवश्यकता है. किन्तु कुछ समय पूर्व पाठ्यपुस्तकों में अमर शहीद भगतसिंह को आतंकवादी निरुपित करने का भी कुत्सित प्रयास इन्ही राजनीतिकों द्वारा किया गया था.

    आज के दिवस पर आपके लेख के लिए धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  10. अभिषेक जी आपने बहुत शोढपरक जानकारी प्रस्तुत की है। भगत सिंह को इस तरह याद किया जाना अच्छा लगा। आलेख के लिये धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं

आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.

आइये कारवां बनायें...

~~~ साहित्य शिल्पी का पुस्तकालय निरंतर समृद्ध हो रहा है। इन्हें आप हमारी साईट से सीधे डाउनलोड कर के पढ सकते हैं ~~~~~~~

डाउनलोड करने के लिए चित्र पर क्लिक करें...